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अपना-अपना महत्त्व है। पुनः मुक्ति की प्राप्ति के लिए इनके समन्वित रूप की अपेक्षा है। यथार्थ ज्ञानाभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है पर एक मात्र ज्ञान से भी मुक्ति सम्भव नहीं है। इसी प्रकार दर्शन (सत्य प्रतीति) के अभाव में भी असम्भव है; परन्तु एक मात्र दृष्टिकोण की शुद्धि (सम्यग्दर्शन) मुक्ति नहीं दिला सकती जब तक आ सम्यक् न हो। सम्यक्चारित्र के अभाव में भी मुक्ति अप्राप्य है । किन्तु ज्ञान एवं दर्शन से रहित मात्र चारित्र भी मुक्ति का कारण नहीं है। सम्यक्चारित्र के साथ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होना आवश्यक है।
इस प्रकार जैन दर्शन शंकर के समान एक मात्र ज्ञान को, रामानुज के समान एक मात्र भक्ति को तथा मीमांसा दर्शन के समान एक मात्र कर्म को ही मुक्ति का साधन नहीं मानता है। अपितु यह सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के समन्वित मार्ग को ही मोक्ष का कार्यकारी साधन मानता है। उत्तराध्ययनसूत्र के 'एहिमग्गमणुपत्ता तथा तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः इन मूलपाठ में प्रयुक्त 'मार्ग' शब्द का एकवचनात्मक प्रयोग इस बात को सूचित करता है कि मुक्ति का मार्ग तो एक ही है जो इन चारों से समन्वित हैं। "
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पूर्वापरता या क्रम के आधार पर किसी एक को प्रधान या दूसरे को गौण मानना जैन दर्शन को स्वीकार्य नहीं है। यथार्थतः ये सब एक दूसरे से पूर्णतया सम्बन्धित हैं। एक दृष्टि से तो दर्शन और ज्ञान की उपलब्धि में भी सदाचरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि जब तक अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम) क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायें समाप्त नहीं होती तब तक सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार जहां ज्ञान की विशुद्धि के लिए सम्यग्दर्शन ( यथार्थ दृष्टि) का होना आवश्यक है वहां सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) की विशुद्धता के लिए अनन्तानुबन्धी कषायं का क्षय या उपशम अर्थात् चारित्र की आंशिक विशुद्धि भी आवश्यक है। एक ओर ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के लिए चारित्र का विकास आवश्यक है तो दूसरी ओर आचरण की पवित्रता / शुद्धता के लिए सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में एक स्थान पर चारित्र का स्थान दर्शन से पूर्व भी रखा गया है। अतः सिद्ध होता है कि इनमें से प्रत्येक का अपना महत्त्व है। वस्तुतः ज्ञान साधना मार्ग का बोध है तो दर्शन उसकी सत्यता का विश्वास है और चारित्र एवं तप साधना मार्ग में गति है। जब जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से
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उत्तराध्ययनसूत्र - २८/३/ (ख) तत्त्वार्थसूत्र - १/१/
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