________________
उत्तराध्ययनसूत्र में साधक को अनेक सन्दर्भों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप के क्षेत्र में पुरूषार्थ के लिये प्रेरित किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि आत्मा में रही हुई अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख एवं अनन्तशक्ति की क्षमता को योग्यता के रूप में परिणत करने हेतु पुरूषार्थ करना ही वीर्याचार है। दूसरे शब्दों में आत्मशक्ति को 'अनावृत करने का पुरूषार्थ ही वीर्याचार है ।
२६६
उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित इस द्विविध से लेकर पंचविध मोक्षमार्ग में विशेषतः यह ध्यातव्य है कि इनमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है, क्योंकि जब चतुर्विध मोक्षमार्ग अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की बात आती है; तो वीर्य को चारित्र एवं तप के विधेयात्मक पहलू में सम्मिलित किया जाता है। त्रिविध मोक्षमार्ग अर्थात् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में तप एवं वीर्य का चारित्र में अन्तर्भाव हो जाता है तथा द्विविध मोक्षमार्ग अर्थात् ज्ञान एवं चारित्र की चर्चा में दर्शन को ज्ञान के अन्तर्गत तथा तप एवं वीर्य को चारित्र के अन्तर्गत समाविष्टं किया जाता है।
'दर्शन' को ज्ञान के अन्तर्गत मानने का आधार हमें उत्तराध्ययनसूत्र की टीका से उपलब्ध होता है। उनमें दर्शन का अर्थ सामान्यबोध किया गया है। ज्ञान में सामान्य और विशेष, जाति और व्यक्ति दोनों का बोध समाहित होता है । अतः दर्शन को ज्ञान के अन्तर्गत भी माना जा सकता है।
पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है कि मोक्षमार्ग हेतु ज्ञान एवं चारित्र की अपरिहार्यता है। कहा भी गया हैं कि 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष किन्तु यहां यह ज्ञातव्य है कि मात्र ज्ञान ही मुक्ति का साधन नहीं है।
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि कुछ विचारक मानते हैं कि पाप का त्याग किये बिना मात्र आर्यतत्त्व को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है; लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं। संक्षेप में कहा जाय तो उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आचरण विहीन ज्ञान, मुक्ति का साधन नहीं बन सकता है। °
10
६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५५६ १० ' भणता अकरेंता थ, बंधमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेलेण, समासासेति अप्पयं ।।
Jain Education International
- (शान्त्याचार्य) ।
उत्तराध्ययनसूत्र - ६/६ ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org