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अध्ययन में कहा गया है कि पांच आचारों की उपेक्षा करने वाला श्रमण पापश्रमण कहलाता है।
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पंचाचार रूप मोक्षमार्ग में वीर्याचार को छोड़कर शेष चार आचार चतुर्विध मोक्षमार्ग में समाहित ही हैं । अतः यहां इन पंचाचारों में मात्र वीर्याचार सम्बन्धित चर्चा ही अपेक्षित है। उत्तराध्ययनसूत्र में जीव के छः लक्षणों में वीर्य का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। टीकाओं में वीर्य का अर्थ सामर्थ्य किया गया है इससे यह प्रतिफलित होता है कि आत्मा की शक्ति या सामर्थ्य को प्रकट करने का प्रयत्न वीर्याचार है।
जैन दर्शन के परवर्ती ग्रन्थों में यद्यपि चारित्र के अन्तर्गत तप एवं वीर्य का समावेश कर लिया गया है लेकिन उत्तराध्ययनसूत्र में इनका अलग वर्णन भी मिलता है। अतः इनमें रही हुई आंशिक भिन्नता को जानना यहां उचित प्रतीत होता है।
चारित्राचार संयम मन एवं इन्द्रियों पर नियन्त्रण का सूचक है, अर्थात् निवृत्ति या निषेधरूप है तथा तपाचार में स्वेच्छापूर्वक कष्टों को आमन्त्रित कर उन्हें समभाव से सहन करना होता है। इसी प्रकार वीर्याचार साधना के क्षेत्र में स्वशक्ति का प्रकटीकरण है अतः ये प्रवृत्ति के परिचायक और विधिरूप हैं। सहनशीलता की प्रधानता होते हुए भी आंशिक रूप से निवृत्ति का तत्त्व निहित है। तप प्रत्याख्यानपूर्वक होता है । प्रत्याख्यान निवृत्ति का सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संयम निवृत्ति प्रधान है; तप में आंशिक निवृत्ति और आंशिक प्रवृत्ति होती है जबकि वीर्य पुरूषार्थ रूप होने से प्रवृत्तिपरक (विधिपरक) है।
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उत्तराध्ययनसूत्र में साधक को बार-बार साधना के क्षेत्र में पुरूषार्थ करने की प्रेरणा दी गई है । इसके उनतीसवें 'सम्यक्त्व - पराक्रम' अध्ययन में वीर्याचार अर्थात् आत्मविशुद्धि हेतु किये जाने वाले प्रयत्नों का विस्तृत वर्णन किया गया है। अभिधानराजेन्द्रकोश में वीर्याचार के सम्बन्ध में कहा गया है कि अपने वीर्य, आत्म शक्ति को न छिपाते हुऐ यथाशक्ति पुरूषार्थ (पराक्रम) करना वीर्याचार है।
५ उत्तराध्ययनसूत्र - १७ /२० ।
६ उत्तराध्ययनसूत्र - १८/११ ।
७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५६१ ८ व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर ।
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- ( शान्त्याचार्य) ।
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