________________
द्विविध मोक्षमार्ग : उत्तराध्ययनसूत्र में द्विविध मोक्षमार्ग के प्रतिपादन में ज्ञान एवं चारित्र (आचरण) का ग्रहण किया गया है। जिनके कुछ उदाहरण निम्न हैं
२६७
(१)
विज्जाचरणपारणा - १८/२२, २३/२ एवं ६; (२) विज्जाचरणसम्पन्ने - १८/२४;
(३) इइ विज्जामणुसंचरे - १८ /३० /
सूत्रकृतांग, दशवैकालिक तथा चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक में भी इस द्विविध मोक्षमार्ग का वर्णन प्राप्त होता है।' सूत्रकृतांग में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है. विज्जाचरण पमोक्खो - अर्थात् ज्ञान और आचरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है। त्रिविध मोक्षमार्ग : त्रिविध मोक्षमार्ग के अन्तर्गत उत्तराध्ययनसूत्र में ज्ञान एवं चारित्र के साथ 'दर्शन' को भी सम्मिलित किया गया है जो निम्न है:'नाणेणं दंसणेणं च चारित्तेण तहेव य २२/२६: 'नाणं च दंसणं चेव, चरितं चेव निच्छए - २३ / ३३/ ‘नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुन्ति चरणगुणा २८/३० |'
त्रिविध मोक्षमार्ग का वर्णन स्थानांगसूत्र, ऋषिभाषित, तत्त्वार्थसूत्र आदि अनेक ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है।
चतुर्विध मोक्षमार्ग : उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाइसवें अध्ययन की गाथा क्रमांक २, ३ तथा ३५ में चतुर्विध मोक्षमार्ग का निरूपण हुआ है। जिसमें ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के साथ तप भी सन्निहित है।
‘मोक्खमग्गगइं तच्चं सुणेह जिणभासिय
चउकारण संजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं '२८/१; 'नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा २८ / २ एवं ३ |
चतुर्विध मोक्षमार्ग का उल्लेख दिगम्बर परम्परा के सीलपाहुड, दर्शनपाहुड आदि ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है।
पंचविध मोक्षमार्ग : उत्तराध्ययनसूत्र में पंचाचार के रूप में पंचविध
मोक्षमार्ग का वर्णन मिलता है । ये पांच आचार निम्न हैं | ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार । उत्तराध्ययनसूत्र के सत्रहवें पापश्रमणीय नामक
३ (क) सूत्रकृतांग - १/१२/११
(ख) दशवेकालिक - ६/१/१४,१६ ।
४ (क) स्थानांग ३/४/४३४ (ख) ऋषिभाषित २३ / २ । (ग) तत्त्वार्थसूत्र - १/१ ।
Jain Education International
- ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३२६) ।
-
- ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ५८१) ।
For Personal & Private Use Only
1
www.jainelibrary.org