________________
२६६
(१) मानवता (२) श्रुति (धर्मश्रवण) (३) श्रद्धा और (४) पुरूषार्थ।' एक अन्य प्रसंग में उत्तराध्ययनसूत्र में यह भी कहा गया है कि मानव शरीर एक नौका है, जिसके माध्यम से हम चतुर्गतिमय रूप संसार समुद्र से मुक्त हो सकते हैं।
साधना के क्षेत्र में मुख्य तत्त्व हमारे शरीर, इन्द्रियां मन और आत्मा को सम्यग् दिशा में नियोजित करना है । वस्तुतः जब ये चारों सम्यक दिशा में नियोजित होते हैं तो ही साधना की यात्रा प्रारम्भ होती है। उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाईसवें 'मोक्षमार्गगति अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि जब आत्मा मन, इन्द्रियों और शरीर को संयमित करके मोक्षमार्ग में गति करता है, तभी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
अनन्तचतुष्ट्य, उनके कारण एवं निवारण के उपायों को निम्न तालिका द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है -
| अनन्तचतुष्टय
आवरण
निवारण के उपाय १. अनन्त ज्ञान
ज्ञानावरणीय कर्म सम्यग् ज्ञान २. अनन्त दर्शन दर्शनावरणीय कर्म सम्यग् दर्शन ३. अनन्त सौख्य मोहनीय कर्म
. सम्यक् चारित्र | ४. अनन्त वीर्य | अन्तराय कर्म
| सम्यक् तप उत्तराध्ययनसूत्र में अनन्तचतुष्ट्य को प्रकट करने के साधनों की विस्तृत रूप से चर्चा की गई है । इसमें हमें मोक्षमार्ग के विविध वर्गीकरणों की विवेचना उपलब्ध होती है जो निम्न है
६.१ द्विविध से पंचविध मोक्षमार्ग -
. उत्तराध्ययनसूत्र में द्विविध से लेकर पंचविध मोक्षमार्ग का विवेचन उपलब्ध होता है जिनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३/91
, 'चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो।
माणुसुतं सुईसद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।।' . २ 'सरीरमाहु नावत्ति, जीवो. वुच्चइ नाविओ। संसार अण्णावो वुत्तो, ज तरति महेसिणो ।'
- उत्तराध्ययनसूत्र - २३/६३ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org