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________________ उत्तराध्ययनसूत्र का साधनात्मक पक्ष : मोक्षमार्ग उत्तराध्ययनसूत्र का सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषय को यदि संक्षेप में कहना हो तो हम यह कह सकते हैं कि वह व्यक्ति को आत्मसाधना के क्षेत्र में नियोजित होने की प्रेरणा देता है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा अनन्त चतुष्टय सम्पन्न है, यह अनन्त - चतुष्टय - अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख एवं अनन्त शक्ति रूप है । ये आत्मा में स्वभावतः निहित हैं, किन्तु कर्मावरण के कारण ये अनन्त शक्तियां या क्षमतायें कुण्ठित हो जाती हैं । उन क्षमताओं को योग्यता में परिणत करना ही साधना का एक मात्र लक्ष्य है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आत्मा का यह अनन्त चतुष्टय ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाती कर्मों के आवरण के कारण ही कुण्ठित हुआ है । साधना के क्षेत्र में यह आवश्यक है कि जिन घाती कर्मों के कारण ये शक्तियां कुण्ठित हैं उनको समाप्त किया जाय, तभी ये शक्तियां हमें यथार्थ रूप में उपलब्ध हो सकेगी। साधना का अर्थ उन शक्तियों को, जो अभी आत्मा में तिरोहित हैं, प्रकट करना है। अनन्तशक्ति को आविर्भूत करने के लिये आत्मा के साथ रहे हुए कषाय . रूपी कल्मष को समाप्त करना आवश्यक है; क्योंकि सम्पूर्ण कर्मावरण कषायों के आधार पर ही स्थित है । कषायों के क्षय से ही इस कर्मावरण का क्षय होकर आत्मा के अनन्त चतुष्टय का प्रकटन होता है। चतुर्गतिमय इस संसार के अन्दर मनुष्य जीवन ही एक ऐसा जीवन है जहां व्यक्ति इन आत्म–क्षमताओं को योग्यता में बदल सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्राणी को चार बातों की उपलब्धि दुर्लभ है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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