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से जिसमें आत्मा अर्थात् स्वस्वभाव का हनन हो वह आत्महत्या है। आत्महत्या स्वस्वभाव का घात किये बिना नहीं होती, आत्महत्याएं तीव्र आवेग एवं विवेक शून्यता की स्थिति में होती हैं, जबकि समाधिमरण आत्मसजगता के साथ विवेकपूर्वक एवं समतापूर्वक देह के प्रति निर्ममत्व की साधना है।
समाधिमरण एवं आत्महत्या के अन्तर को अनेक विचारकों ने स्पष्ट किया है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार व्यक्ति आत्महत्या राग, द्वेष और मोह से युक्त होकर करता है, जबकि समाधिमरण व्यक्ति राग, द्वेष और मोह से मुक्त होकर करता है। 59 इसमें व्यक्ति के मन में न किसी के प्रति राग होता है और न किसी के प्रति द्वेष । वह अपने शरीर पर से भी ममत्व भाव का त्याग कर देता है।
डॉ. साध्वी प्रियदर्शनाजी के अनुसार आत्मघात के मूल में कषायों की अतृप्त वासनात्मक भावनाओं का वास होता है, जब कि संलेखना के मूल में कषायों का सर्वथा त्याग होता है।
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डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख 'समाधिमरण: एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन' में समाधिमरण एवं आत्महत्या के अन्तर पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है। उसका कुछ अंश निम्न हैं
(१) आत्महत्या चित्त की सांवेगिक अवस्था है, जबकि समाधिमरण चित्त के समत्व की अवस्था ।
(२) आत्महत्या ऐहिक जीवन की दुःखों से रक्षा के लिए है जबकि समाधिमरण आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है।
(३) आत्महत्या में कायरता है जीवन से भागने का प्रयास है, जबकि समाधिमरण साहसपूर्वक मृत्यु के स्वागत की तैयारी है।
(४) आत्महत्या के मूल में भय और कामना होती हैं। समाधिमरण में भय और कामना दोनों की अनुपस्थिति आवश्यक है।
५६ सर्वार्थसिद्धि टीका - ७/२२, पृष्ठ २८१ ।
६० 'आधारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन' ६१ 'जैन विद्या के आयाम', खंड ६, पृष्ठ
(५) आत्महत्या असमय मृत्यु का आमन्त्रण है जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है । 1
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पृष्ठ २७५ । ४२२ ४२३ ।
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