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8.4 समाधिमरण आत्महत्या नहीं हैं
समाधिमरण के विषय में कई विचारकों की यह धारणा है कि समाधिमरण आत्महत्या का एक रूप है। किन्तु उनकी यह भ्रान्त धारणा समाधिमरण एवं आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझने के कारण है। यद्यपि समाधिमरण में भी स्वेच्छापूर्वक देह त्याग किया जाता है फिर भी समाधिमरण में आत्महनन के लिए कोई अवकाश नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से आत्महत्या को दुर्गति का कारण माना गया है। आत्महत्या उसे कहा जाता है, जिसमें मृत्यु की आकांक्षा होती है। समाधिमरण में मृत्यु की कोई आकांक्षा नहीं होती है। अतः समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। पुनः आत्महत्या में संक्लेश का भाव होता है, उद्विग्नता होती है। जबकि समाधिमरण में इनका अभाव होता है। वैदिक, जैन
और बौद्ध तीनों ही परम्पराओं में जीविताशा एवं मरणाशा दोनों को अनुचित माना है।" समाधिमरण का साधक जीवन एवं मरण दोनों के प्रति अनासक्त होता है। वह देहत्याग मात्र इस भाव से करता है कि मृत्यु अनिवार्य है और शरीर नष्ट होने वाला है। अतः इसका पोषण व्यर्थ है।
वस्तुतः 'आत्महत्या' शब्द का ज्ञानियों के शब्दकोश में कोई अस्तित्व नहीं है क्योंकि आत्मा अजर एवं अमर है। उसका कभी मरण हो ही नहीं सकता। ‘मरणधर्मा तो शरीर है। उत्तराध्ययनसूत्र की भाषा में मृत्यु देह का आत्मा से वियोग है
और यह वियोग भी देह विशेष से है। दूसरे शब्दों में आत्मा का एक देह से दूसरे देह में जाना ही मरण है; जब आत्मा का देह से शाश्वत वियोग हो जाता है तो वह मरण न कहलाकर निर्वाण या मोक्ष कहलाता है।
सामान्यतः आत्मा का देहपरिवर्तन तो वस्त्रपरिवर्तन के समान है। गीता में कहा गया है कि जिस प्रकार व्यक्ति जीर्ण अर्थात् पुराने वस्त्र उतार कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण करता है मरण शरीररूपी वस्त्र त्याग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
__इस प्रकार हनन आत्मा का नहीं वरन् शरीर का होता है। हां, इतना अवश्य है कि यदि स्वयं ही स्वयं के द्वारा अपने शरीर का हनन होता है तो वह आत्महत्या माना जाता है (आत्मना हन्यते स्वशरीरं या सा आत्महत्या)। प्रकारान्तर
५७ देखिये - 'जैन विद्या के आयाम', खंड ६, पृष्ठ ४२५ संदर्भ १६ । ५८ गीता - २/२२ ।
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