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________________ २८६ (६) रत्नकरण्डकश्रावकाचार रत्नकरण्डकश्रावकाचार के सप्तम अधिकार में भी विस्तृत रूप से संलेखना आदि का वर्णन किया गया है। समाधिमरण की अवधारणा अतिप्राचीन है। अतः भारतीय दर्शन की श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों ही परम्पराओं में इसके उल्लेख मिलते हैं, जिनका संक्षिप्त उल्लेख निम्न है वैदिकपरम्परा में मृत्युवरण हिन्दूपरम्परा में आत्महत्या को महापाप माना जाता है। इस सन्दर्भ में पाराशरस्मृति में कहा गया है कि 'जो क्लेश, भय, घमण्ड और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है वह साठ हजार वर्ष तक नरकवास करता है। दूसरी ओर वैदिकपरम्परा में उपवास आदि के द्वारा देहत्याग को श्रेयस्कर भी माना गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व, वनपर्व एवं मत्स्यपुराण आदि ग्रन्थों में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा किए गये देहत्याग को ब्रह्मलोक या मुक्ति का कारण माना गया है। बौद्धपरम्परा में मृत्युवरण बौद्धपरम्परा में आत्मबलिदान को अनुचितं माना गया है। अपेक्षा विशेष से बौद्ध साहित्य में स्वेच्छापूर्वक मरण को मुक्ति का कारण भी माना गया है। संयुक्तनिकाय में भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र एवं भिक्षु छन्ना द्वारा असाध्य रोग से पीड़ित होने पर आत्मसमाधि करने का वर्णन है। तथा इसे परिनिर्वाण का कारण भी माना गया है। जापान में आज भी बौद्ध सम्प्रदाय में हारीकरी की प्रथा प्रचलित है; जिसमें धारदार शस्त्र द्वारा अंग-प्रत्यंग काटकर मृत्यु का वरण किया जाता है। इस प्रकार परिस्थिति विशेष में बौद्धधर्म में शस्त्रवध द्वारा मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है। ५५ पाराशरस्मृति - ४/१/२ ५६ संयुक्तनिकाय - २१/२/४/५, ३४/२/४/४ - (उद्धत - जैन विद्या के आयाम' - खंड ६, पृष्ठ ४२५) । - (उद्धत् - 'जैन विद्या के आयाम' - खंड ६, पृष्ठ ४२५) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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