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(शरीर) और कषाय को क्षीण या कृश करना संलेखना है।" समभावपूर्वक राग आदि को क्षीण करते हुए मृत्यु को प्राप्त होना संलेखना है। इस प्रकार इसमें दो बातें मुख्य रूप से प्रकट होती हैं। शरीर का कुशीकरण और कषायों का क्षय। इसमें मुख्य उद्देश्य कषायों का क्षय ही है। मरणसमाधि के अनुसार संलेखना के दो प्रकार हैं। आभ्यन्तर एवं बाह्य; कषायों को कृश करना आभ्यंतर संलेखना है एवं शरीर को कृश करना बाह्य संलेखना है। यहां शरीर को कृश करने का आशय बहुत गहरा है, क्योंकि कषायों का मुख्य निमित्त शरीर बनता है। कषायों का मुख्य उत्पादक तत्त्व शरीर ही है। अतः उसे कृश करना कषायों के कम करने में उपयोगी है।
(५) संथारा - संथारा या संस्तारक शब्द का अर्थ शय्या होता है जिस पर शयन किया जाता है उसे शय्या कहते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में संथारे का अर्थ मृत्यु शय्या पर आरूढ़ होना है। जैनपरम्परा में 'संथारा' शब्द समाधिमरण के सन्दर्भ में विशेष रूप से प्रचलित है।
(E) अन्तक्रिया - आचार्य समन्तभद्र ने जीवन के अन्तिम भाग में किये जाने वाले इस धार्मिक अनुष्ठान/समाधिमरण को अन्तक्रिया कहा है।
— समाधिमरण के अपरनाम सन्यासमरण, उत्तमार्थ एवं उद्युक्तमरण भी मिलते हैं; किन्तु इन सबका सार एक ही है - समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करना। विषय - कषाय का क्षय करने हेतु की जाने वाली अन्तिम समय की क्रिया अन्त क्रिया है ।
समाधिमरण में बाधक परिस्थितियां
उत्तराध्ययनसूत्र में दुर्गति में ले जाने वाली पांच भावनाओं का वर्णन किया गया है। अकाममृत्यु को प्राप्त करने वाले अज्ञानी जीव इन भावनाओं से ग्रस्त होते हैं। ये भावनायें समाधिमरण में बाधक होती हैं। अतः इनका वर्णन यहां प्रासंगिक है।
३७ अभिधानराजेन्द्रकोश - भाग ७, पृष्ठ २१७ । ३८ मरणसमाधि-गाथा - १७६, पत्र - १०८ | ३६ रत्नकरण्डक श्रावकाचार -५/२ पृष्ठ २२३ । ४० उत्तराध्ययनसूत्र ३६/२६३ ।
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