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________________ २८१ तृणमय संस्तरण (शय्या) संलेखनामरण का कारण है और न ही प्रासुक भूमि, किन्तु जिसका मन शुद्ध है ऐसी आत्मा ही वास्तव में संस्तारक (सकाममरण की अधिकारी) है। मन की विशुद्धि से रहित साधु के अजिन अर्थात् (चर्म वस्त्र); नग्नत्व या संघाटी (उत्तरीय), जटा या शिरोमुण्डन आदि बाह्याचार उसे दुःख से त्राण (रक्षा) दिलाने में समर्थ नहीं होते हैं। दुःशील साधु समाधिमरण को प्राप्त नहीं करता, जबकि सामायिक एवं पौषधव्रत से युक्त सद्गृहस्थ भी समाधिमरण के द्वारा उच्चगति को प्राप्त कर सकता है। समाधिमरण के पर्यायवाची जैन ग्रन्थों में सकाममरण के विभिन्न पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं यथा - समाधिमरण, पण्डितमरण, संलेखना, संथारा, अन्तक्रिया, उत्तमार्थ आदि। 10) समाधिमरण - यह समाधि एवं मरण इन दो शब्दों के योग से बना है। समाधि का अर्थ चित्त या मन की शान्त अवस्था है तथा मरण का अर्थ देह का आत्मा से वियोग है। इस प्रकार समाधिमरण समाधि अर्थात् शान्ति पूर्वक या अविकल भाव से मृत्यु का वरण करना है। (२) पण्डितमरण - उत्तराध्ययनसूत्र में ज्ञानी/संयमी व्यक्ति के मरण को पण्डितमरण कहा गया है। (पण्डित शब्द ज्ञानी व्यक्ति के लिए आया है। आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिये निर्ममत्व भाव से देह का त्याग करना पण्डितमरण है। o, (३) सकाममरण – यहां सकाम शब्द का अर्थ कामना या आकांक्षा नहीं है, वरन् विशेष उद्देश्य है। उद्देश्यपूर्वक स्वेच्छा से मृत्यु को प्राप्त करना सकाममरण है। इसका उद्देश्य भी एक मात्र आत्मशुद्धि होता है। संक्षेप में सार्थक, लक्ष्ययुक्त या प्रयोजनपूर्वक मृत्यु सकाममरण है। (४) संलेखना - संलेखना शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक लिख' धातु से बना है। सम् का अर्थ होता है सम्यक् / उचित प्रकार से तथा लेखना का तात्पर्य कृश या क्षीण करना है। अभिधानराजेन्द्रकोश के अनुसार सम्यक् प्रकार से काय ३५ (क) महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक - गाथा ६६, पत्र ६६; (ख) संस्तारक प्रकीर्णक-गाथा - ५३, पत्र ५६। ३६ उत्तराध्ययनसूत्र १/२१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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