SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वस्तुतः ये तीनों प्रकार के मरण श्रेष्ठ हैं तथा इन तीनों की सहायता से मुक्ति सम्भव है, लेकिन व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य एवं शक्ति के अनुसार इन तीनों में से किसी एक प्रकार की मरणविधि का चयन कर उसका अनुसरण करना चाहिए । संयम, साधना की कठोरता की अपेक्षा से विचार करने पर भक्तपरिज्ञामरण श्रेष्ठ है, इंगिनीमरण श्रेष्ठतर है और पादोपगमन मरण श्रेष्ठतम है। इनमें प्रवृत्ति का स्तर अल्प से अल्पतम होकर नहींवत् हो जाता है। फिर भी इतना अवश्य है कि इन तीनों में से अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी भी एक विधि का आलम्बन लेकर व्यक्ति अपनी मुत्यु को मांगलिक बना सकता है और मोक्ष को उपलब्ध कर सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतः कहा गया है कि पण्डितमरण की इन तीनों विधियों में से किसी एक को अपनाकर व्यक्ति कर्मावरण का क्षयकर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। 32 २८० समाधिमरण का अधिकारी सकाममरण पण्डित (ज्ञानी) पुरूषों का होता है। अतः इसे पण्डितमरण भी कहा जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र की बृहद्वृत्ति में चारित्र सम्पन्न व्यक्ति को पण्डित कहा गया है।3 संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार 'पण्डा संजाता यस्य स पण्डित' पण्डा अर्थात् इन्द्रियां, जो इन्द्रियों को संयमित रखे, वह पण्डित है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार समाधिमरण के अधिकारी पुण्यशाली, संयमी एवं जितेन्द्रिय पुरूष होते हैं। वे साधु (श्रमण) एवं गृहस्थ दोनों हो सकते हैं। इसमें कहा गया है कि सकाममरण न तो सभी साधुओं को प्राप्त होता है और न ही सभी गृहस्थों को क्योंकि गृहस्थ विविध आचरण वाले होते हैं और भिक्षु भी .. विषमशील वाले होते हैं । 34 ३२ उत्तराध्ययनसूत्र ५ / ३२ । ३३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र २३४ ३४ उत्तराध्ययनसूत्र ५ / १८ एवं १६ । इससे सिद्ध होता है कि समाधिमरण सुव्रती व्यक्ति का होता है, फिर चाहे वह गृहस्थ हो या साधु । मन की विशुद्धि समाधिमरण की अनिवार्य आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में संस्तारक एवं महाप्रत्याख्यान् प्रकीर्णक में कहा गया है कि न तो Jain Education International - - ( शान्त्याचार्य) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy