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________________ (१) भक्तपरिज्ञा 'भक्तपरिज्ञा' शब्द का प्रचलित अर्थ खान-पान का विवेक है, इसका पारम्परिक अर्थ खान-पान का प्रत्याख्यान (त्याग) है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य ने अशन, पान आदि चारों प्रकार के आहारों तथा बाह्य और आभ्यन्तर उपधि के यावज्जीवन सर्वथा त्याग को भक्तपरिज्ञा नामक समाधिमरण कहा है। 30 (२) इंगिनीमरण २७६ इंगिनमरण का शाब्दिक अर्थ इंगित क्षेत्र में शारीरिक क्रियाकलापों को करते हुए मृत्यु को प्राप्त करना है। इंगिनीमरण में भी भक्तपरिज्ञामरण के समान ही चतुर्विध आहार एवं बाह्य और आभ्यन्तर उपधि का त्याग होता है; पर इसकी विशेषता यह है कि इसमें आहार आदि के त्याग के साथ-साथ व्यक्ति अपनी चेष्टाओं को भी सीमित करता है और सीमा को लांघकर कोई शारीरिक चेष्टा नहीं करता। इंगितमरण में भक्तपरिज्ञा समाहित है इसके साथ ही इसमें शारीरिक चेष्टाओं पर भी संयम रखने का प्रयास किया जाता हैं । (३) पादोपगमन पादोपगमन नामक तीसरे समाधिमरण की विशेषता यह है कि इसमें साधक आहार और उपधि के प्रत्याख्यान के साथ-साथ अपनी शारीरिक चेष्टाओं का भी प्रत्याख्यान कर देता है और भूमि पर गिरे हुए वृक्ष के समान किसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा न करते हुए निश्चल रूप से मृत्युपर्यन्त निष्क्रिय होकर आत्मस्थ हो जाता है । टीकाकार ने यहां यह भी स्पष्ट किया है कि पादोपगमन नामक समाधि ग्रहण करने के अधिकारी वे ही होंगे जिनका संहनन वज्रऋषभनाराचसंहनन के समान विशिष्ट हो। 31 पादोंपगमन विशिष्ट शारीरिक शक्ति वाले के लिए ही अनुमत है। सामान्य साधक के लिए तो भक्तपरिज्ञा ही श्रेयस्कर है। ३० उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र २३६ ३१ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र २३६ Jain Education International · ( शान्त्याचार्य) । (शान्त्याचार्य) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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