SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ समाधिमरण की प्रक्रिया ( उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण के समय एवं प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अनेक वर्षों तक श्रमणधर्म का पालन करके मुनि आत्मा की संलेखना करे अर्थात् आत्मा के विकारों का शोधन करे। संलेखना में विकारों, कषायों और उन के आधारभूत शरीर को कृश करने का प्रयास किया जाता है। उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष, मध्यम एक वर्ष और जघन्य छ: मास की होती है। बारहवर्ष की संलेखना के काल की साधना का उल्लेख करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि साधक प्रथम चार वर्ष में दुग्ध आदि विकृतियों का निर्युहण अर्थात् त्याग. करे, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के तप करे, फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और एक दिन भोजन) करे तथा भोजन के दिन आचाम्ल/आयंबिल अर्थात् नीरस अल्पाहार करे। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छ: महिनों तक कोई भी विकृष्ट अर्थात् तेला, चौला आदि तप न करे। उसके बाद छ: महीनों तक विकृष्ट तप करे। पारणे के दिन इस पूरे वर्ष में परिमित आचाम्ल अर्थात् विकृति रहित आहार एक बार ग्रहण करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि सहित अर्थात् निरन्तर आचाम्ल करके फिर वर्षान्त में मुनि एक पक्ष या एक मास का अनशन करे। समाधिमरण के प्रकार . उत्तराध्ययनसूत्र के पांचवें अध्ययन की अन्तिम गाथा में समाधिमरण तीन प्रकार का होता है; ऐसा उल्लेख मिलता है; पर इसमें इनका नामोल्लेख नहीं किया गया है। नियुक्तिकार ने इस सन्दर्भ में भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण एवं पादोपगमन इन तीन नामों का उल्लेख किया है तथा इन्हें क्रमशः कनिष्ठ, मध्यम एवं ज्येष्ठ कहा है। यद्यपि तीनों मरण समाधिमरण के ही रूप हैं फिर भी संहनन एवं प्रति (धैर्य) की अपेक्षा से इनकी साधना विधि में अन्तर है, जो निम्न है - उतराध्ययनसूत्र ३६/२५० एवं २५१ । तरामयनसूत्र ३६/२५२ से २५५ । ममरणं मरई, तिहमन्नयरं मुणी।।' मतपरिणा झंगणी, पाओवगमं च तिण्णि मरणाई। मनसमाजामजेट्ठा, पिइ संघयणेण उ विसिट्ठा।।' - उत्तराध्ययनसूत्र ५/३२ । - उत्तराध्ययननियुक्ति - २२४ -(नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ ३८६)' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy