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परन्तु ये चारित्र की सुरक्षा के उद्देश्य से किये जाने पर सकाममरण रूप भी हो सकते हैं।
अब हम संक्षेप में अकाममरण की चर्चा करने के पश्चात् अपने मूल विषय सकाममरण पर विशेष रूप से प्रकाश डालेंगे।
अकाममरण
अकाममरण की व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में कहा गया है कि 'अज्ञानी जीव विषयों की आसक्तिवश मरना नहीं चाहते हैं, किन्तु आयुष्य पूर्ण होने पर उन्हें मरना ही पड़ता है; यह उनकी विवशता है । इस प्रकार विवशता की स्थिति में होने वाला मरण अकाममरण है। दूसरे शब्दों में अनैच्छिक एवं निरर्थक मरण अकाममरण है।
प्रस्तुत प्रसंग में 'अकाम' शब्द का अर्थ निष्काम की अपेक्षा निरर्थक अधिक संगत प्रतीत होता है। सामान्य बोलचाल की भाषा का 'बेकाम' शब्द, जिसका अर्थ कोई काम का नहीं (Useless); इसका पर्यायवाची हो सकता है। निष्कर्षतः जिस मरण से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता वह अकाममरण है।
अकाममरण बाल (अज्ञानी) जीवों का होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य ने 'बाल' शब्द को परिभाषित करते हुए लिखा है कि जो सत् (उचित) एवं असत् (अनुचित) के विवेक से रहित हो वह बाल है। विवेक विकल जीव बाल या अज्ञानी कहलाते हैं और उनका मरण अकाममरण या बालमरण कहलाता है। • उत्तराध्ययनसूत्र में अकाममरण को अनुचित एवं त्याज्य बताया गया है। इसमें यहां तक कहा गया है कि अकाममरण को प्राप्त करने वाले जीव की स्थिति जुए में हारे हुए शोकग्रस्त जुआरी के समान होती है। इसलिये अकाममरण की अपेक्षा सकाममरण श्रेष्ठ है। अब हम सकाममरण अर्थात् सार्थकमरण या
ते हि विषयाभिष्वंगतो मरणमनिच्छंत एवं प्रियते।' २२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका, पत्र - २४२ २३ उत्तराध्ययनसूत्र - ५/१६ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र २४२ - (शान्त्यावायी।
- (शान्त्याचायी।
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