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________________ २७१ (५) वशार्तमरण ऐन्द्रिकविषयों के वशीभूत व्यक्ति का आर्तध्यान पूर्वक मरण वशार्तमरण कहलाता है। यह मरण आर्तध्यान में निमग्न रहने वाले व्यक्ति का होता है। इसके इन्द्रियवशात, वेदनावशार्त, कषायवशात एवं नोकषायवशात ऐसे चार भेद भी किये गये हैं। (६) अन्तशल्यमरण - उत्तराध्ययननियुक्ति के अनुसार लज्जा एवं अभिमान के कारण गुरू के सम्मुख अतिचारों की आलोचना किये बिना मृत्यु को प्राप्त करना अन्तशल्यमरण है।' भगवतीवृत्ति में इसके दो भेद माने गये हैं - द्रव्य और भाव। शरीर में शस्त्र की. नोंक, कांटे आदि के रहने से मृत्यु होना द्रव्य अन्तशल्यमरण है तथा सदोष चारित्र वाले व्यक्ति द्वारा दोषों की आलोचना किये बिना मृत्यु को प्राप्त करना भाव अन्तशल्यमरण है। (७) तद्भवमरण . जिस भव की आयु पूर्ण कर जीव की मृत्यु हो, पुनः उसी भव में जन्म ग्रहण कर मृत्यु को प्राप्त करना तद्भवमरण होता है। असंख्यातवर्ष की आयुष्य वाले अकर्मभूमि के मनुष्य एवं तिथंचों का जन्म तथा नारकों एवं देवों का उत्पात पुनः उसी भव में नहीं होता है। इसलिये यह कहा गया है कि अकर्मभूमि के मनुष्यों और तिर्यचों तथा देवों और नारकों को छोड़कर शेष कर्मभूमि के जीवों में से कुछ जीवों का तद्भवमरण होता है, क्योंकि कर्मभूमि के सभी मनुष्य या तिर्यंच पुनः उसी योनि में जन्म लेकर तद्भवमरण को प्राप्त नहीं होते हैं। अतः यह कहना उचित ही है कि कर्मभूमि के कुछ मनुष्य एवं तिर्यंचों को ही तद्भवमरण प्राप्त होता है। ८ विजयोदयावृत्ति - ८६ ६ उत्तराध्यवननियुक्ति - २१७-२१६ १० भगवतीवृत्ति पत्र - २१ - (उद्धत् - उत्तरायणाणि, भाग-१, पृष्ठ १२६, युवाचार्य महाप्रज्ञ)। - (नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ ३८५) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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