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(२) अवधिमरण अवधि का अर्थ यहां समय-सीमा है। समय की सीमा के समाप्त होने पर मृत्यु को प्राप्त होना अवधिमरण है। उत्तराध्ययननियुक्ति के अनुसार एक योनि में जो जीवन एक बार जी चुका है पुनः उसी योनि को प्राप्त करके मृत्यु को प्राप्त 'होना अवधिमरण है दूसरे शब्दों में जिस गति में एक बार जन्म मरण किया जा चुका है पुनः उस गति में उस गति से सम्बद्ध आयुष्यकर्म के दलिकों के साथ जन्म-मरण करना अवधिमरण है । चूंकि देव या नारक योनि में जीवन की अवधि निर्धारित होती है। अतः पुनः उसी जीवन अवधि को लेकर मरना अवधिमरण है। निष्कर्षतः आयुकर्म के भोगे हुए पुद्गलों का प्रत्येक क्षण में अलग होना आवीचिमरण है तथा एक बार भोगकर छोड़े हुए परमाणु रूप पुद्गलों को पुनः भोगने से पहले जब तक उनका भोग शुरू नहीं करता उस बीच की अवधि को अवधिमरण कहते हैं।
(३) अत्यन्तमरण वर्तमान आयुष्य को पूर्ण कर पुनः कभी भी उस योनि में उत्पन्न न होना पड़े, ऐसी मृत्यु अत्यन्तमरण कहलाती है। अर्थात् इस मरण में आयुकर्म के जिन दलिकों को एक बार भोग लिया उन्हें दुबारा कभी भी ग्रहण नहीं करना होता है । भगवती आराधना में इस मरण को आद्यन्तमरण कहा गया है। जो योनि अन्तिम हो, जिसमें पुनः जन्म नहीं लेना पड़े उस योनि में होने वाली मृत्यु अन्तिम होने से उसे अत्यन्तमरण कहते हैं ।
(४) वलन्मरण उत्तराध्ययननियुक्ति के अनुसार जो संयमी जीवन से निराश होकर मृत्यु को प्राप्त करता है, उसकी मृत्यु को वलन्मरण कहा जाता है। भगवतीसूत्र की वृत्ति के अनुसार भूख प्यास से तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त करना वलन्मरण है।'
* उत्तराध्ययननियुक्ति - २१५
- (नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ ३८५)। ५ भगवती आराधना - पृष्ठ ५६
- (उद्धृत जैनधर्म में समाधिमरण की अवधारणा, पृष्ठ १३६)। ६ 'संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं. वलायमरणं तु।' - उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा २१५ । ७ 'वलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमामस्य संयमाचा प्रश्यतो (यतो) मरणं तद्वलन्मरणा' - भगवती वृत्ति, पृष्ठ २११ ।
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