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________________ उसकी मृत्यु हो जाती है।' सभी जीव समभावपूर्वक (शान्ति से) मरना चाहते हैं, फिर भी यह ध्यान रखना होगा कि व्यक्ति जिस प्रकार का जीवन जीता है, उसी के अनुरूप उसकी मृत्यु होती है। समाधिमरण सहज नहीं है। उसके पीछे सम्पूर्ण जीवन की साधना रहती है। जैन परम्परा में समाधिमरण शान्तिपूर्ण मृत्यु की आकस्मिक घटना नहीं है, अपितु जीवन में की गई साधना का प्रतिफल है। ८. १ मरण के सत्रह प्रकार जैनदर्शन के अनुसार जीव के तद्भव सम्बन्धी आयुष्यकर्म का क्षय होने पर आत्मा का शरीर से निकल जाना मृत्यु है। जैन साहित्य में मृत्यु के अनेक प्रकारों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी क्रम में हम यहां समवायांग, भगवती एवं उत्तराध्ययननिर्युक्ति में वर्णित सत्रह प्रकार की मृत्यु की संक्षिप्त विवेचना करेंगे । (१) आवीचिमरण वीचि का अर्थ है तरंग । समुद्र में प्रतिक्षण लहरें उठती रहती हैं, वैसे ही आयुष्यकर्म भी प्रतिसमय उदय में आकर क्षीण होता जाता है। अतः जीवन प्रति समय नष्ट होता जाता है। प्रति समय होने वाला जीवन का विनाश ही आवीचिमरण कहलाता है। संक्षेप में प्रतिक्षण होने वाली मृत्यु को आवीचिमरण कहा जा सकता है। उत्तराध्ययननियुक्ति में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से आवीचिमरण के पांचप्रकार बतलाए हैं। १ 'जे पावकम्मेहि धणं मणुस्सा, समाययंती अमई गहाय। पहाय ते पासपयट्ठिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उवेन्ति । । २६६ २ (क) उत्तराध्ययननियुक्ति - २१३ (ख) समवायांग- १७/६ (ग) भगवती २ / ४६ - ३ उत्तराध्ययननियुक्ति - २१४ Jain Education International - उत्तराध्ययनसूत्र - ४ / २ । (निर्युक्तिसंग्रह, पृष्ठ ३८५); (अंगसुत्ताणि-लाडनू खंड १, पृष्ठ ८५२); ( अगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड २, पृष्ठ ८६) । (निर्युक्तिसंग्रह, पृष्ठ ३८५) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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