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उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण की अवधारणा
जन्म एवं मृत्यु जीवन यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव हैं । जन्म आत्मा का शरीर विशेष के साथ संयोग है तो मृत्यु शरीर विशेष से आत्मा का वियोग । जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्यतः जुड़ी हुई है। मनुष्य के लिये जीवन की कला के साथ मृत्यु की कला का भी ज्ञान आवश्यक है। पाश्चात्य मनीषियों ने जीवन जीने को एक कला बताया है (Living is an art) लेकिन भगवान महावीर ने जीवन की कला के साथ-साथ मृत्यु की भी कला सिखाई है ।
उत्तराध्ययनसूत्र में जहां विस्तार से जीवन दर्शन का चित्रण किया गया है। वहीं इसके पांचवें अकाममरणीय अध्ययन में मृत्यु-दर्शन का भी सुन्दर विवेचन किया गया हैं। जीवन और मरण दोनों ही हमारे जागतिक अस्तित्व के अनिवार्य अंग हैं, प्रश्न उठता है कि जीना अच्छा है या मरना ? इसके उत्तर में जैन कथा साहित्य में एक प्रसंग कहा गया है कि एक अपेक्षा से न जीना अच्छा है न मरना, किन्तु अन्य अपेक्षा से जीना और मरना दोनों ही श्रेयस्कर है। अज्ञानी, असंयमी आत्मा का जीना भी अच्छा नहीं है तथा मरना भी अच्छा नहीं है और ज्ञानी एवं संयमी आत्मा का जीना भी श्रेष्ठ है, तो मरना भी श्रेष्ठ है।
प्रस्तुत अध्याय में हमारा मुख्य विवेच्य विषय समाधिमरण है फिर भी हम पूर्व भूमिका के रूप में मृत्यु के स्वरूप एवं प्रकारों की चर्चा करना उचित समझते
__मृत्यु जीवन का अवश्यम्भावी पक्ष है । उत्तराध्ययनसूत्र में मृत्यु की अपरिहार्यता एवं अनिवार्यता पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि व्यक्ति जीवन भर धन आदि का संग्रह करता है तथा अपनी मृत्यु से बचने के उपाय करता रहता है इस कारण वह नाना प्रकार के शुभ अशुभ कर्मों का संचय करता रहता है। लेकिन उसके ये सभी प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं और अन्ततः
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