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७.५ क्या उत्तराध्ययनसूत्र जीवन का निषेध सिखाता है?
उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित जीवन की दुःखरूप एवं त्याग वैराग्य के पूर्वोक्त विवेचन को पढ़कर सामान्यतः किसी के मन में यह शंका उपस्थित हो सकती है कि क्या उत्तराध्ययनसूत्र जीवन का निषेध सिखाता है ? किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र का अनुशीलन करने पर सहज यह बोध हो जाता है कि उत्तराध्ययनसूत्र जीवन का निषेध नहीं सिखाता; वरन् वह तो जीवन को सर्वतोभावेन रक्षणीय मानता है। इसमें विशद रूप से कहा गया है 'लाभन्तरे जीविय हइत्ता' अर्थात् गुणों की प्राप्ति के लिये जीवन का संरक्षण करना चाहिये ।86
उत्तराध्ययनसूत्र का 'द्रुमपत्रक' अध्ययन प्रति समय अप्रमत्त (आत्मसजग) रहने की प्रेरणा देता है। जहां जीवन के एक-एक क्षण को अमूल्य माना गया है, उसे सार्थक करने का सन्देश दिया गया है, वहां जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण कैसे हो सकता है ?
उत्तराध्ययनसूत्र का यदि जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण होता तो इसमें मात्र दुःखद परिस्थिति का वर्णन ही होता, परन्तु ऐसा नहीं है। इसमें समभाव की शिक्षा देकर सुखद एवं दुःखद दोनों परिस्थितियों में चित्तवृत्ति को अप्रभावित रखने का सन्देश दिया गया है। पुनश्च उत्तराध्ययनसूत्र में साधनामार्ग की चर्चा करते हुए जीवन के लक्ष्य का निर्धारण किया गया है। इसकी दृष्टि में जीवन निष्प्रयोजन नहीं है। उसका लक्ष्य है तप संयम की साधना के द्वारा विकारों और तज्जन्य दुःखों से विमुक्ति। यह सत्य है कि जीवन दुःखमय है किन्तु उसका प्रयोजन दुःख विमुक्ति है।
जीवन को सार्थक करने का सन्देश देते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि 'अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा निरट्ठाणि उवज्जए' अर्थात् जीवन में सार्थक (आत्महित के अनुकूल) बातों का ग्रहण एवं निरर्थक (व्यर्थ) बातों का वर्जन करना चाहिये ।
उत्तराध्ययनसूत्र में जीवन को असंस्कृत कहकर जीवन की क्षणभंगुरता का वर्णन किया गया है तथापि इसका लक्ष्य इसकी
८६ उत्तराध्ध्यन ४/७। ८७ उत्तराध्ययनसूत्र १/८ ।
८८ उत्तराध्ययनसूत्र १/८ । Jain Education International
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