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चार गति, चौरासी लाख योनियों में से मनुष्यभव को प्राप्त करना दुर्लभ है । कदाचित् मनुष्य शरीर मिल भी जाय तो भी मानवीय गुणों की प्राप्ति अति दुर्लभ है। इसी प्रकार क्रमशः श्रुति, श्रद्धा और सदाचरण की प्राप्ति भी दुर्लभतर है।
आत्मसाधना हेतु शुद्ध मनोवृत्ति, अनुकूल वातावरण तथा आचरण की प्राप्ति होना अति दुर्लभ है। इस प्रकार का चिन्तन बोधिदुर्लभ भावना में किया जाता है। इस भावना के चिन्तन से मनुष्य जीवन के साधनात्मक पक्षों की दुर्लभता का बोध कर व्यक्ति धर्म मार्ग की ओर अग्रसर होता है। अतः इसके पश्चात् धर्मभावना का क्रम आता है।
(१२) धर्म भावना 'वत्थु सहावो धम्मो वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में आत्मा का स्वभाव – सम्यक ज्ञानदर्शनचारित्र का चिन्तन करना धर्म भावना है।
उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमणधर्म एवं श्रावकधर्म ऐसे द्विविध धर्म का वर्णन किया गया है। इसमें कहा गया है कि धर्म का महत्त्व समझ कर उसे स्वीकार करें । धर्म का फल प्रतिपादित करते हुए इसमें कहा गया है कि जो जीव धर्म की आराधना कर परलोक में जाता है, वह अल्पकर्म वाला और वेदना रहित हो सुखपूर्वक जीवनयापन करता है। इस प्रकार धार्मिक चिन्तन करना धर्मभावना है।85
तत्त्वार्थसूत्र, योगशास्त्र धर्मसंग्रह, नवतत्त्व प्रकरण आदि ग्रन्थों में इन बारह भावनाओं का वर्णन उपर्युक्त क्रम के अनुसार ही उपलब्ध होता है, किन्तु प्रशमरति प्रकरण' में उपर्युक्त क्रम में कुछ भिन्नता पाई जाती है। . वस्तुतः ये बारह भावनायें ही संवर निर्जरा रूप हैं। इनका चिन्तन करते समय व्यक्ति शुभ-आत्म भावों में रमण करता है। जिससे नये कर्मों का बन्ध रूक जाता है। पुराने निर्जरित होते हैं । इनमें से प्रत्येक भावना का अपना स्वतन्त्र महत्त्व है।
४ उत्तराध्ययनसूत्र ८/१६ ।
उत्तराध्ययनसत्र १६/२१ । Jain Education International
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