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उत्तराध्ययनसूत्र में निर्जरा के कारण रूप बारह प्रकारों का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है, जो इस शोधप्रबन्ध के नवमें अध्याय 'उत्तराध्ययनसूत्र का साधनात्मक पक्ष : मोक्षमार्ग' में द्रष्टव्य है।
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इस प्रकार 'निर्जरा भावना के अन्तर्गत साधक पूर्वकृत कर्मों से मुक्ति के क्या-क्या उपाय हैं ? इसका चिन्तन कर तप साधना द्वारा निर्जरा करता है। इसके बाद लोक भावना का क्रम आता है।
(१०) लोक भावना
निर्जरा के द्वारा आत्मा कर्मों से मुक्त हो जाती है और मुक्त आत्माएं लोकाग्र पर अवस्थित होती हैं। अतः निर्जरा - भावना के पश्चात् लोक भावना को रखा गया है। लोक भावना में लोक के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार लोक धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल एवं जीव रूप षट्द्रव्यात्मक है। 2 यह द्रव्य रूप से शाश्वत एवं पर्यायरूप से अशाश्वत है। इस षट्द्रव्यात्मक लोक के स्वरूप, प्रकार आदि को जान कर स्वयं की मुक्ति का विचार करना लोक भावना है। आचारांगसूत्र के अनुसार साधक को अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक के स्वरूप का विचार करते हुए यह चिन्तन करना चाहिए कि मुझे ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यक्लोक के भवभ्रमण से मुक्त होकर लोकाग्र पर स्थित होना है ।
इस लोक में दुर्लभ क्या है, इसका बोध कराने के लिए अग्रिम क्रम से बोधिदुर्लभ भावना का वर्णन किया जाता है।
८२ उत्तराध्ययनसूत्र २८ /७ । ८३ उत्तराध्ययनसूत्र ३/१ 1
बोधि से तात्पर्य
सम्यक्त्व है। उसके स्वरूप एवं दुर्लभता का
चिन्तन करना बोधिदुर्लभ भावना है। उत्तराध्ययनसूत्र में चार अंगों- मनुष्यत्व, श्रुति (ज्ञान), श्रद्धा और संयम में पुरूषार्थ को अत्यन्त दुर्लभ बताया गया है।
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(११) बोधिदुर्लभ भावना
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