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इस प्रकार आश्रव भावना में कर्मों का आगमन कैसे और किन कारणों से होता है, इसका चिन्तन किया जाता है। आते हुए इन कर्मों को कैसे रोका जाय, इनका चिन्तन संवर भावना में किया जाता है। अतः इसके पश्चात् संवर भावना का क्रम है।
(८) संवर भावना आश्रव - कर्मों के आगमन के मार्ग को निरूद्ध करना संवर है। दुष्प्रवृत्ति के द्वारों को बंद करने का चिन्तन संवर भावना है । आश्रव को रोकने के लिए संवर रूप उपायों का विधान किया गया है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है, 'क्षमा से क्रोध का, मृदुता से मान का. ऋजुता से माया का तथा निस्पृहता से लोभ का निग्रह करना चाहिए।
इस भावना के सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र में समिति, गुप्ति, पंचमहाव्रत योग, आदि का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है । संवर भावना के द्वारा आत्मा नवीन कर्मों के बन्धन से बच जाता है, जो पूर्वकृत कर्म हैं, उनका क्षय निर्जरा के द्वारा होता है। अतः इसके पश्चात् निर्जरा भावना का उल्लेख किया जाता है।
(E) निर्जरा भावना संसार-भ्रमण के कारणभूत कर्मों का आंशिक क्षय – नष्ट करने का चिन्तन निर्जरा भावना है। आश्रव, संवर एवं निर्जरा का सम्बन्ध प्रतिपादित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार किसी तालाब को सुखाने के लिये सर्वप्रथम जल के आने वाले मार्ग को रोकना पड़ता है । उसमें रहे हुए जल को उलीचना या सूर्य के ताप से उसे सुखाना आवश्यक है, उसी प्रकार संयमी पुरूष पापकर्म के मार्ग (आश्रव) का निरोध (संवर) करके तपस्या द्वारा संचित कर्मों की निर्जरा करता है।
शवकालिक ५/३६ । बेग शास्त्र ४/८६ । उत्तराध्ययनसूत्र ३०/५ एवं ६ ।
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