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(७) आश्रव भावना कर्मों के आगमन का मार्ग आश्रव कहलाता हैं । कर्म रूपी मल के . ' आगमन के कारणों पर और उनके परिणामों पर बार-बार चिन्तन करना आश्रव भावना है।
समयवायांगसूत्र में आश्रव के निम्न पांच द्वारों का वर्णन किया गया
(१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और (५) योग।
उत्तराध्ययनसूत्र में इन पांचों का एक साथ वर्णन नहीं मिलता है पर इन पांचों के नाम अवश्य मिलते हैं।
(१) मिथ्यात्व- वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा न होना मिथ्यात्व है। (२) अविरति- इन्द्रियों और मन के विषयों से विरक्त न होना अविरति :
(३) प्रमाद- आत्मसजगता का अभाव, आलस्य एवं शिथिलता प्रमाद है। प्रमाद आत्मा का प्रमुख शत्रु है । अतः उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें एवं बत्तीसवें अध्ययन में प्रमाद के त्याग की विशेष प्रेरणा दी गई है। .
(४) कषाय- आत्मा के कलुषित भाव कषाय कहलाते हैं। इनके चार प्रकार हैं- (१) क्रोध (२) मान (३) माया और (४) लोभ। (५) योग- मन, वचन एवं काया के व्यापार को योग कहते हैं।
योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने योग को आश्रव कहा है,” क्योंकि योग के द्वारा शुभाशुभ कर्मों का आश्रव होता है।
आश्रव भावना के चिन्तन से समुद्रपाल को वैराग्य उत्पन्न हुआ था। उसने अपने प्रासाद के गवाक्ष से एक चोर को वधस्थान की ओर ले जाते हुए देखा। यह देखकर वह चिन्तन करने लगा कि अहो, अशुभ कर्मों का दुःखद परिणाम होता है।
७६ समवायाग ५/४ ७७ योगशास्त्र ४/७४ ७८ उत्तराध्वयनसूत्र २१/८ एवं
- (अंगसुत्तापि, लाडनूं, खंड १ पृष्ठ ८३३) । - (हेमचन्द्राचार्य)।
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