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गुणस्थान' कहा जाता है, उसके अनुसार अन्य सभी कषायों के क्षय या उपशम हो जाने पर भी सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय रहता है और वह सूक्ष्म लोभ देह के प्रति आसक्तिरूप होता है। अतः देहासक्ति से मुक्त होने के लिये अशुचि भावना का चिन्तन किया जाता है।
- शरीर की अशचिता (अपवित्रता) - का चिन्तन करना अशुचि भावना है। इस भावना के परिप्रेक्ष्य में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि यह शरीर अनित्य है, अशुचि रूप है और अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है। इसी सम्बन्ध में प्रशमरति में आचार्य उमास्वाति ने भी कहा है कि यह शरीर पवित्र को भी अपवित्र बनाता है। इसकी आदि एवं उत्तर अवस्था अशुचिरूप हैं। अतः शारीरिक अशुचिता का चिन्तन करना चाहिए।
आचार्य उमास्वाति ने शरीर का आदि अवस्था को अशुचिमय कहा है अर्थात् यह रस, रूधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात अशुचिमय धातुओं से बना है। इसकी उत्तर अवस्था को अशुचिमय कहने का तात्पर्य है कि इसके नौ द्वारों अर्थात् दो नेत्र, दो कान, दो नाक के नथुने, एक मुख, एक गुदा तथा एक लिंग से निरन्तर गन्दगी बहती रहती है। इस अशुचि के प्रभाव से इत्र, तेल आदि सुगन्धित पदार्थ भी दुर्गन्ध रूप बन जाते हैं। सुस्वादिष्ट, मधुर आहार भी विष्टा के रूप बन जाता है। वास्तव में यह शरीर रूपी कारखाना निरन्तर गन्दगी का ही उत्पादन करता है। ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार मल्लिकुमारी (उन्नीसवें तीर्थंकर) ने शरीर की अशुचिता के माध्यम से विवाह करने के लिये आये हुए राजकुमारों को वैराग्यवासित किया था।
. उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को रोगों एवं व्याधियों का घर कहा है। इस प्रकार अशुचिता की भावना का प्रयोजन शरीर की अपवित्रता का बोध कराकर आत्मा को देह के ममत्व से मुक्त कराना है। देह का आकर्षण कम होने पर व्यक्ति का ध्यान आत्मा की ओर जाता है। वह अन्तर्मुखी होकर कर्म बंधन से बचने का प्रयास करता है । कर्मबन्ध का कारण आश्रव है। अतः अशुचि भावना के पश्चात् आश्रव भावना का क्रम रखा गया है।
..७२ उत्तराध्ययनसूत्र १६/१३ । .७३ प्रशमरति १५५ ।
७४ माताधर्मकथा - आठवां अध्ययन । ७. उत्तराध्ययनसूत्र १०/२७-एवं १६/१४ ।
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