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अन्यत्व भावना का मूल चिन्तन है, 'आत्मा के अतिरिक्त सब पदार्थ पर . हैं, अन्य हैं । अन्यत्व भावना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए योगशास्त्र में कहा गया है कि शरीर जन्मान्तर में आत्मा के साथ नहीं जाता है। इससे शरीर और शरीरी (आत्मा) की भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है। तब फिर यह कहना सत्य है कि धन, बन्धु, बान्धव आदि परिजन आत्मा से भिन्न हैं। जो अपनी आत्मा को शरीर, धन, स्वजन आदि से भिन्न रूप में देखता है, उसकी आत्मा को वियोग जन्य शोक रूपी कांटा कैसे पीड़ित कर सकता है ?
उत्तराध्ययनसूत्र के नवमें अध्ययन में इन्द्र नमिराजर्षि को कहते हैं कि तुम्हारी मिथिला जल रही है; तब नमिराजर्षि कहते हैं कि मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता है। नमिराजर्षि 'स्व' और 'पर' की भी भिन्नता को जानते थे; अतः उन्हें पर पदार्थों में आसक्ति नहीं थी। यहां तक कि वे देह में रहते हुए भी देहभाव से मुक्त थे; अतः विदेही कहलाते थे।
भगवान महावीर ने साधना काल में घोर उपसर्गों का सामना किया; पर जरा भी विचलित नहीं हुए क्योंकि उनको देह एवं आत्मा की भिन्नता का बोध था। सूत्रकृतांग में अन्यत्व भावना के विषय में कहा गया है कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है।
देह से आत्मा के अन्यत्व को श्रीमद्राजचन्द्र ने उदाहरण सहित प्रस्तुत किया है - अनादि काल से आत्मा का देह के साथ संयोग सम्बन्ध रहा है। अतः जीव देह को आत्मा मान लेता है परन्तु जैसे म्यान में रहते हुए भी तलवार म्यान से पृथक है, उसी प्रकार देह में रहते हुए भी आत्मा देह से भिन्न है ।'
इस प्रकार अन्यत्व भावना के अनुसार व्यक्ति को यह चिन्तन करना चाहियेः “मैं शरीर नहीं हूं, किन्तु मैं शरीर में हूँ।
(६) अशुचि भावना अन्यत्व भावना के द्वारा स्व पर की भिन्नता का बोध होता है फिर भी जीव का देह के प्रति प्रगाढ़ आकर्षण है; उससे विमुक्ति पाना अति दुष्कर है। आध्यात्मिक विकास के दसवें सोपान जिसे पारिभाषिक शब्दावली में 'सूक्ष्मसम्पराय
६८ योगशास्त्र ४/७० एवं ७१। ६६ उत्तराध्ययनसूत्र ६/१२ एवं १४ । ७० सूत्रकृतांग २/१/१६ । ७१ आत्मसिद्धिशास्त्र ५।
- (अंगसुत्ताणि लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३५१) ।
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