________________
२५७
उत्तराध्ययनसूत्र के मृगापुत्रीय अध्ययन में नरक की अत्यन्त दुःखमय यातनाओं का वर्णन किया गया है । इसी प्रकार इसके दसवें द्रुमपत्रक अध्ययन में. भवसंख्या का कथन किया गया है जिससे व्यक्ति की जन्म-मरण की दुःख परम्परा का दिग्दर्शन होता है ।
इस प्रकार सांसारिक सम्बन्धों की विचित्रता एवं दुःखरूप का चिन्तन कर आत्म भावों में रमण करना संसार भावना है।
... (४) एकत्व भावना
संसार भावना के चिन्तन से व्यक्ति संसार की दुखरूपता का बोध करता है। यह दुःखरूप की अनुभूति एवं सम्बन्धों की विचित्रता व्यक्ति को कहीं निराशा की ओर न ले जाए; इसके लिये एकत्व-भावना की उपयोगिता है। संसार में रहते हुये भी स्व की स्वतन्त्र-स्थिति का बोध कराना एकत्व भावना का प्रयोजन
एकत्व भावना का अर्थ है, प्राणी अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त करता है। अपने शुभाशुभ कर्मों का उपभोग भी वह अकेला ही करता है। 2 एकत्व भावना के सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र में यह कहा गया है कि जाति, सम्बन्धी, मित्र वर्ग, पुत्र, स्त्री और बान्धव व्यक्ति के दुःखों के भागीदार नहीं होते हैं। व्यक्ति को अकेले ही अपने दुःखों को भोगना पड़ता है, क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है। साथ ही इसमें यह भी बतलाया गया है कि सुख दुःख का कर्ता आत्मा स्वयं ही है।
उत्तराध्ययनसूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है 'संजोगा विप्पमुक्कस्ससाधु संयोग से विप्रमुक्त होते हैं अर्थात् एकत्व भाव में स्थित होते हैं।
. साधु सदैव इस एकत्व भावना का चिन्तन करते हैं कि मैं अकेला हूँ मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं है। मेरी आत्मा शाश्वत है।
६२ (क) उत्तराध्ययनसूत्र १३/२४ एवं १५/१७ ।
(ख) प्रशमरति १५३ । ६३ उत्तराध्ययनसूत्र १३/२३ । ६४ उत्तराध्ययनसूत्र १/१।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org