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________________ २५६ व्यक्ति को जब यह अनुभव हो जाता है कि इस संसार के सभी पदार्थ, स्वजन, परिजन आदि आश्रयदाता नहीं हो सकते हैं, तब उसके सामने यह समस्या पैदा हो जाती है कि आखिर ऐसा कौन सा वह तत्त्व है जो दुर्गति एवं दुःखों से हमारी रक्षा कर सके। इसके उत्तर में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जरा और मरण के प्रवाह में बहते हुए प्राणियों के लिये धर्म ही एक ऐसा आश्रयदाता द्वीप है, स्थान है, उत्तमगति है, शरण है, आधार है । जहां प्रत्येक प्राणी सुख-शान्ति और निर्भयतापूर्वक रह सकता है। आचार्य उमास्वाति ने भी धर्म को ही एक मात्र शरणभूत बताया है। मनुस्मृति में भी कहा गया है कि परलोक की यात्रा के समय स्वजन तो मुंह फेरकर चले जाते हैं, किन्तु परलोक में भी प्राणी के साथ धर्म ही जाता है। इस प्रकार अशरण भावना के द्वारा व्यक्ति यह चिन्तन करता है कि इस संसार में कोई किसी का संरक्षक नहीं है। अतः मुझे संसार में एक मात्र शरणभूत धर्म को स्वीकार कर लेना चाहिए। (३) संसार भावना जो संसरण शील/परिवर्तनशील होता है, वह संसार है इस प्रकार जहां जीव एक भव से दूसरे भव में, एक गति से दूसरी गति में, संसरण करते हैं, वह संसार है। . जीव चार गति रूप, दुःखों से परिपूर्ण संसार में निरन्तर भ्रमण करता रहता है । इस संसार में किसी की माता आगामी भव में उसकी पत्नी बन जाती है तो पत्नी माता हो जाती है। पिता मरकर पुत्र और पुत्र मरकर पिता हो जाता है। नाटक के दृश्यों की तरह यह संसार अभिनय पूर्ण है, त्याज्य है। इस प्रकार का चिन्तन संसार भावना है। उत्तराध्ययनसूत्र में संसार को दुःखरूप बताया गया है। इसमें अंश मात्र भी सुख नहीं है; यहां जन्म जरा-वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु सभी दुःखरूप हैं। यहां जीव अनेकविध कष्टों को प्राप्त करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र २३/६८ । HE प्रशमरति १५२ । ६० मनुस्मृति ३/२४१. ६. उत्तराध्ययनसूत्र १६/१५ एवं ७४ । - उद्धृत भावनायोग - पृष्ठ १५३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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