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उत्तराध्ययनसूत्र में एक रूपक के माध्यम से अशरण भावना का चित्रण करते हुए कहा गया है कि जब कोई सिंह मृग की टोली में से किसी एक मृग को दबोचकर ले जाता है, उस समय अन्य सभी मृग भयभीत होते हैं । इधर उधर छिपते हैं, अपनी जान बचाते हैं। लेकिन उनमें से कोई भी सिंह के मुंह में जाते हुए मृग की रक्षा नहीं कर सकता है। यही स्थिति संसार में मनुष्यों की है। मृत्यु से आक्रान्त व्यक्ति के माता-पिता, भाई, बहन, पुत्र-पुत्री, पत्नी आदि सब एक ओर खड़े देखते रहते हैं; विवश हो रोते बिलखते हैं। लेकिन उसे मृत्यु से बचाने में कोई समर्थ नहीं होते 153
संसार में कोई प्राणी किसी की आधि व्याधि वेदना आदि को दूर करने में समर्थ नहीं होता है। अनाथीमुनि के आख्यान में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। अनाथीमुनि स्वयं कहते हैं- 'महाराज, उस बीमारी की अवस्था में मैं अनाथ था, असहाय था । मेरा कोई भी नाथ या संरक्षक नहीं था । मेरी पीड़ा को दूर करने में मेरे परिजन या मित्र कोई भी समर्थ नहीं थे। यही मेरी अनाथता थी। 54
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अनाथी मुनि जब अपनी गृहस्थ अवस्था में रोग ग्रस्त हुए तो अपार सम्पदा और अत्यन्त प्रीति रखने वाले स्वजन उन्हें उस रोग से मुक्ति नहीं दिला सके। तब अशरण भावना का चिन्तन करते-करते उन्हें वैराग्य हो गया । धर्म की शरण में जाने का संकल्प करते ही वे स्वस्थ हो गये।
उत्तराध्ययनसूत्र के छुट्टे अध्ययन में भी कहा गया है कि माता, पिता, आदि परिवारजन कर्मों से लिप्त आत्मा को शरण देने में सक्षम नहीं होते हैं। 55 प्रकारान्तर से यही बात सूत्रकृतांग में भी कही गई है - उत्तराध्ययनसूत्र में एक प्रसंग में यह भी कहा गया है, 'पढ़े हुए वेद भी त्राण देने में समर्थ नहीं होते हैं।' इसका आशय है कि आचरणशून्य ज्ञान जीव को शरण नहीं दे सकता 17
५३ उत्तराध्ययनसूत्र १३ / २२ । ५४ उत्तराध्ययनसूत्र २०/१६ से ३० ।
५५ उत्तराध्ययनसूत्र ६ / ३ ।
५६ सूत्रकृतांग १/२/३/७० ५७ उत्तराध्ययनसूत्र १४ / १२ ।
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- ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ २७४) ।
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