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उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें अध्ययन में जीवन एवं शरीर की अनित्यता का दिग्दर्शन करते हुए अप्रमत्त तथा अनासक्त रहने की प्रेरणा दी गई है। जैसे रात्रि बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पत्ता स्वतः गिर जाता है, वैसे मनुष्य का जीवन भी एक दिन समाप्त हो जाता है। घास के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्द की तरह यह जीवन क्षणिक है। जरा सी हवा या धूप के लगते ही जैसे वह बूंद समाप्त हो जाती है; वैसे ही यह आयु भी समाप्त हो जाती है। शरीर आश्रित इन्द्रियों की अनित्यता का वर्णन करते हुए भगवान महावीर गौतमस्वामी को कहते हैं -
हे गौतम ! तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं, श्रोत्रेन्द्रिय का बल क्षीण हो रहा है अतः क्षण मात्र का भी प्रमाद मत कर। इसी क्रम से विभिन्न इन्द्रियों एवं उनकी शक्ति के क्षीण होने का संकेत करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें अध्याय में अप्रमत्त जीवन जीने का सन्देश दिया गया है। धनसम्पत्ति की नश्वरता - उत्तराध्ययनसूत्र में बाह्य पदार्थों की क्षणभंगुरता का वर्णन करते हुए कहा गया है काल बीतता जा रहा है; रात्रियां भागी जा रही हैं; जीवन में जो काम भोग प्राप्त हुए हैं वे स्थिर नहीं हैं; नित्य नहीं हैं। जब तक पुण्य का संयोग है, सुख सम्पत्ति दौड़कर आती है। जैसे पक्षी फल रहित वृक्ष को छोड़कर चले जाते है वैसे ही पुण्य क्षीण होने पर ये काम भोग, सुख सम्पत्ति, स्वजन, परिजन आदि ऐसे ही छोड़कर चले जाते हैं । धन की अनित्यता का वर्णन करते हुए सिन्दुरप्रकरण में कहा गया है
रिश्तेदार धन को लेना चाहते हैं; चोर चुराना चाहते हैं; राजा/सरकार छल एवं कानून बनाकर इसे हड़प लेना चाहते हैं। अग्नि इसे भस्म कर डालती है; पानी इसे बहा देता है और जमीन में गड़ा हुआ धन यक्ष आदि निकाल कर ले जाते हैं। यदि सबसे बचाकर रख भी लिया जाय तो दुराचारी पुत्र इसे उड़ा देते हैं।" कवि कहता है कि ऐसे बहुत खतरे वाले और बहुत लोगों के
४७ उत्तराध्ययनसूत्र १०/१ एवं २ । ४८ उत्तराध्ययनसूत्र १०/२१ । ४६ उत्तराध्ययनसूत्र १०/२२ से २६ । ५० उत्तराध्ययनसूत्र १६/१६ । ५१ सिन्दुरप्रकरण ७४ । .
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