________________
२५२
(१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचि (७) आश्रव (८) संवर (६) निर्जरा (१०) लोकभावना (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्मभावना •
जहां तक हमारे शोधग्रन्थ के आधार उत्तराध्ययनसत्र का प्रश्न है; उसमें इन बारह भावनाओं का नाम सहित एक साथ वर्णन उपलब्ध नहीं होता है । इसमें प्रायः बारह भावनाओं से सम्बन्धित वर्णन अवश्य उपलब्ध होता है जो मानव के जीवन दर्शन की यथार्थ झलक प्रस्तुत करता है।
(१) अनित्य भावना अनित्य भावना के अनुसार जगत में जितनी भी पौद्गलिक वस्तुयें हैं वे सब अनित्य हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक प्रसंगों में अनित्य भावना से सम्बन्धित वर्णन मिलता है। इसके अठारहवें अध्ययन में गर्दभालीमुनि राजा संजय को अनित्य भावना का उपदेश देते हैं -
'हे राजन्! जिस शरीर, यौवन, रूप और सम्पत्ति पर तुम आसक्त हो रहे हो, जिसे तुम अपना मानकर मोह कर रहे हो; वह बिजली की चमक की तरह क्षणिक है फिर भी तुम परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहे हो अर्थात् क्यों व्यर्थ इन पर आसक्त हो रहे हो?45
उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर एवं सम्पत्ति की अनित्यता (नश्वरता) पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है, जिन्हें निम्न रूप से विवेचित किया जा सकता हैशरीर की नश्वरता- प्राणी की आसक्ति का घनीभूत आश्रय शरीर होता है। वह शरीर को स्वस्थ एवं चिरंजीवी रखने का हर सम्भव प्रयास करता है; अतः देहासक्ति से मुक्त होने की प्रेरणा देते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि यह शरीर अनित्य है और इस शरीर में जीव का निवास भी अशाश्वत अर्थात् अस्थायी है।
शरीर शब्द से ही सूचित होता है 'प्रतिक्षणं शीर्यते इति शरीरं' अर्थात् जो प्रतिक्षण गल रहा है, क्षीण हो रहा है, उसे शरीर कहते हैं। यह हमेशा बदलता है; जिसका स्थूल परिवर्तित रूप बालक से युवा तथा युवा से वृद्ध है।
४५ उत्तराध्ययनसूत्र १५/१३ । ४६ उत्तराध्ययनसूत्र १६/१२ एवं १४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org