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पापकर्मों में लिप्त अज्ञानी जीव अपनी रक्षा विविध प्रकार की विद्याओं एवं भाषाओं के ज्ञान द्वारा भी नहीं कर सकता है।
बारह भावना जैनपरम्परा में बारह भावनाओं को साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है; इन्हें अनुप्रेक्षा भी कहा गया है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा, में 'वारस्सानुवेक्खा' तथा 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' नामक दो स्वतन्त्र ग्रन्थ भी निर्मित हुए हैं। इसमें उत्तराध्ययनसूत्र में एक साथ इन बारह भावनाओं का निर्देश नहीं है किन्तु यत्र तत्र इनके निर्देश एवं व्याख्या अवश्य मिलती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इन बारह भावनाओं का एक साथ उल्लेख मरणसमाधि ग्रंथ में मिलता है -
भावना का स्वरूप - भावना का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है 'भाव्यतेऽनेन भावना' अर्थात् जिसके द्वारा मन को भावित या संस्कारित किया जाय वह भावना है। भावना की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा को स्पष्ट करते हुए ‘पार्श्वनाथ चरित्र' में कहा गया है, 'जिन चेष्टाओं के द्वारा मानसिक विचारों या भावनाओं को भावित या वासित किया जाता है उन्हें भावना कहते हैं।
भावना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है कि भावना के वेग से शुद्ध हुई आत्मा जल पर नौका के समान संसार में तैरती है जिस प्रकार अनुकूल पवन के सहारे से नौका पार पहुंच जाती है उसी प्रकार भावना के सहारे आत्मा संसार सागर से पार हो जाती है और उसके सर्व दुःखों का अन्त हो जाता है। भावनायें, जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में अनुप्रेक्षा के विषय में कहा गया है कि यथार्थ तत्त्वों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन अनुप्रेक्षा है। जैनदर्शन के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में निम्न बारह भावनाओं/अनुप्रेक्षाओं का निर्देश किया गया है
३६ उत्तराध्ययनसूत्र ६/११ ४० मरणसमाधि-गाथा - ४७२, ५७३, पत्र १३५ । ४१ पारसणाहचरिय पृष्ठ ४६० ४२ सूत्रकृतांग १/१५/५ ४३ देखिये - भावनायोग पृष्ठ ३१ । ४४ तत्त्वार्थसूत्र ६/७ ।
- उद्धृत - भावनायोग पृष्ठ १६ । - (अंगसूत्ताणि, लाडनूं खंड १, पृष्ठ ३४०) ।
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