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________________ २५० जीव शाश्वतवादी की तरह सोचता है कि अभी धर्मसाधना की क्या आवश्यकता है, अन्तिम समय में हिंसा से विरत होकर धर्म साधना कर लेंगे। बाल जीव की दुर्दशा – प्रमादी, हिंसक एवं असंयमी मनुष्य का शरणदाता कोई नहीं होता उसे कोई भी दुःख से विमुक्त नहीं कर सकता है। यहां तक कि जिनके लिए वह हिंसक कर्म करता है, वे परिवार के लोग भी उन कर्मों के विपाक के समय उदय में आनेवाले दुःखों में सहभागी नहीं होते हैं। अज्ञानी जीव आयु के क्षीण होने पर मृत्यु के समय अर्थात् जब शरीर छूटने का समय आता है तो बहुत दुःखी होता है। वह बालजीव मृत्यु के समय रोगादि से पीड़ित होने पर अति दुःखी होता है, पश्चाताप करता है और अपने किये हुए कर्मों को याद कर परलोक से भयभीत होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मृत्यु के क्षणों में व्यक्ति के जीवन का सम्पूर्ण घटनाचक्र चलचित्र की भांति उसके मानस-पटल पर सरकता जाता है और उसे अपने कृत-कर्मों का स्मरण होने लगता . अज्ञानी जीव मृत्यु के क्षणों में उसी तरह शोकाकुल होता है जैसे विषम मार्ग पर गाड़ी ले जाने वाला व्यक्ति गाड़ी की धुरी टूटने पर शोकग्रस्त होता है। यहाँ जीवन गाड़ी का, अज्ञानी जीव गाड़ीवान का, विषम मार्ग अधर्म मार्ग का प्रतीक है तथा धुरी का टूटना आयुष्य रूपी डोरी का टूटना है। ऐसे समय में दुःखी होना स्वाभाविक हैं उत्तराध्ययनसूत्र में यह भी कहा गया है कि जीवन असंस्कृत है।” लाख प्रयत्न करने पर भी जीवन को सांधा अर्थात् जीवन की डोरी को लम्बा नहीं किया जा सकता है । अज्ञानी जीव अन्त समय में धूर्त जुआरी की तरह जीवन के हार जाने का दुःख करता है।38 ३३ उत्तराध्ययनसूत्र ४/६ ३४ उत्तराध्ययनसूत्र ४/१, ४ एवं है। ३५ उत्तराध्ययनसूत्र ५/११।। ३६ उत्तराध्ययनसूत्र ५/१४ एवं १५ । ३७ (क) उत्तराध्ययनसूत्र ४/१। . (ख) सूत्रकृतांग १/२/३/१० । ३८ उत्तराध्ययनसूत्र ५/१६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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