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________________ २४८ प्राप्त करता है। भोगासक्त व्यक्ति अपने आत्मसुख से वंचित रहता है । जिस प्रकार कोई रसलोलुप राजा चिकित्सक के स्पष्ट मना कर देने पर भी आम्रफल खाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया; फलस्वरूप उसने अपना जीवन गंवा दिया, उसी प्रकार व्यक्ति ऐन्द्रिक वासनाओं की पूर्ति के पीछे अपनी अपार आत्मशान्ति या आत्मसमाधि को खो देता है। 22 इसी बात को उत्तराध्ययनसूत्र में तीन व्यापारियों के दृष्टान्त द्वारा बताया गया है - तीन व्यापारी धन कमाने के लिये विदेश जाते हैं। उनमें से एक मूलधन को यथावत् सुरक्षित लेकर लौटता है, दूसरा मूलधन की वृद्धि करके लौटता है और तीसरा मूलधन को विनष्ट करके लौटता है। इसी प्रकार व्यक्ति मनुष्य जन्म रूपी मूलधन को लेकर संसार में आता है। यदि वह जीव सुकृत करता है, सत्कर्म करता है तो मूलधन को बढ़ाता है और देवगति या मोक्ष प्राप्त करता है, यदि वह मूलधन का विनाश करता है अर्थात् प्राप्त सुविधा का दुरूपयोग करता है तो वह तिर्यंच एवं नरकगति में जाकर अत्यन्त पीड़ा भोगता है। 23 इसप्रकार जो जीव अपने हित अहित का विचार न करके विषयों में ही आसक्त रहता है वह करूणा, दीनता, लज्जा एवं अप्रीति का पात्र बनता है। उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण के सन्दर्भ में बाल (अज्ञानी) एवं पण्डित (ज्ञानी) कौन है ? उनकी मानसिकता, जीवनचर्या कैसी होती है ? इसके विस्तृत विवेचन के साथ अज्ञानियों की दुर्दशा एवं दुर्गति का वर्णन किया गया है। बाल (अज्ञानी) मनुष्य उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थलों पर अज्ञानी जीव के लिए 'बाल' शब्द प्रयोग किया गया है। 24 टीकाकार ने लिखा है कि जो उचित तथा अनुंचित के विवेक से रहित हो वह बाल है। 25 उत्तराध्ययनसूत्र के आठवें अध्ययन में बाल, मन्द एवं २२ उत्तराध्ययनसूत्र ७/११ । २३ उत्तराध्ययनसूत्र ७ /१५ एवं १६ । २४ उत्तराध्ययनसूत्र ५ / ३, ४, ७, ६, १२, १५, १७, ७/४, ५, १७, १६, २८, ३० एवं ८/५ से ७ । २५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र २६२ (शान्त्याचार्य) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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