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आदि दुराचरण करते हैं और परिणामतः दुःख को प्राप्त करते हैं। वे जीव आसक्ति के विषयभूत पदार्थों की उपलब्धि, संरक्षण एवं उनका वियोग न हो; इससे चिन्तित रहते हैं। वे उनके उपभोग काल में भी अतृप्त रहते हैं अतः उन्हें सुख कहां?
उपर्युक्त विवेचन के द्वारा यह सूचित होता है कि जब एक-एक इन्द्रिय के विषय में मूच्छित प्राणी दुर्दशा को प्राप्त होते हैं तो जो मनुष्य एक साथ पांचों इन्द्रियों एवं मन के विषयों में लिप्त रहते हैं उनके दुःख एवं दुर्दशा का तो कहना ही क्या ? इस प्रकार प्रिय एवं सुखद लगने वाले इन्द्रिय सुखों की चाह अप्राप्ति की अवस्था में, प्राप्त हो जाने पर अधिक प्राप्ति के विकल्पों में तथा जो प्राप्त है उसके संरक्षण में दुःख और चिन्ता का विषय होती है। उपलब्धि के प्रयास में भी लोभवश जीव विपत्ति में पड़ जाते हैं तथा लाभ की अपेक्षा अनेक बार हानि हो जाती है। उपभोग के क्षणिक सुख के पश्चात् होने वाले मानसिक, शारीरिक, आर्थिक दुःख तथा परस्पर वैमनस्य सम्बन्धी दुःख भी संसार में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते हैं। विकारग्रस्त जीवों को इन्द्रिय विषयों में सुख का अनुभव होता है; वास्तव में वह सुख की भ्रान्ति के रूप में अन्ततः दुःख रूप है।
७.४ उत्तराध्ययनसूत्र में जीवनदर्शन
उत्तराध्ययनसूत्र में जीवनदर्शन से सम्बन्धित कुछ दृष्टान्तों के द्वारा आसक्त जीवों की दुर्दशा का वर्णन किया गया है। जैसे, एक कांकिणी के लोभ में कोई जीव हजारों मुद्राएं खो देता है, वैसे ही ऐन्द्रिक या क्षणिक सुख, जो यथार्थतः. सुख नहीं सुखाभास मात्र है, उसके पीछे व्यक्ति शाश्वत सुख से वंचित हो जाता है, तनावों में जीता है; आत्म शान्ति से विमुख हो जाता है।
जिस प्रकार पुष्टिकारक खाद्य पदार्थों से हृष्ट-पुष्ट करता है, और अतिथि के आने पर भोजन के लिये मार दिया जाता है, उसी प्रकार भोगों में आसक्त व्यक्ति मृत्यु रूपी अतिथि के आने पर नरक आदि दुर्गति में जाकर अपार दुःख को
२१ 'जहा कागिणिए हेउं, सहस्सं हारए नरो।'
- उत्तराध्ययनसूत्र ७/११ का अंश ।
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