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अन्ततः वे दुःखदायी होते हैं। " उत्तराध्ययनसूत्र में इस तथ्य को अनेक उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट करते हुए इन्द्रिय विषयों की आसक्ति जीव को किस प्रकार दुखी करती है, इसका विस्तृत विवेचन किया गया है वह निम्न है -
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चक्षु इन्द्रिय रूप को ग्रहण करती है अतः रूप चक्षु इन्द्रिय का ग्राह्यविषय है। प्रिय रूप राग का एवं अप्रिय रूप द्वेष का कारण है। जिस प्रकार दृष्टि राग में आतुर पतंगा मृत्यु को प्राप्त होता है उसी प्रकार रूप में आसक्त जीव मृत्यु के मुख में चला जाता है। रूप में आसक्त अज्ञानी जींव अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा करता है और उन्हें परिताप या पीड़ा देता है। वह उन पदार्थों (जिनसे उसके चक्षु को तृप्ति मिलती हैं) के उत्पादन, रक्षण तथा उनका व्यय और वियोग न हो; इसके लिये चिन्तित रहता है और इस प्रकार वह उपभोगकाल में भी अतृप्त तथा अशान्त रहता है अतः उसे सुख कहां ?
रूप की आसक्ति जीव को सदैव दुःख देती है। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि रूप में आसक्त मनुष्य को कब, कहां और कितना सुख मिल सकता है ? अप्राप्त को प्राप्त करने में; प्राप्त का रक्षण करने में तथा उसका वियोग न हो इस चिन्ता में व्यक्ति सदैव दुःखी रहता है। इस प्रकार सांसारिक सुख, सुख न होकर सुखाभास मात्र हैं ।
श्रोत्रेन्द्रिय शब्द का ग्रहण करती है। अतः शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्यविषय है। प्रिय शब्द राग एवं अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है। जैसे शब्द संगीत से मोहित हिरण मृत्यु को प्राप्त होता है; उसी प्रकार प्रिय शब्द से मुग्ध जीव मृत्यु को वरण करता है। मनोज्ञ शब्द में आसक्त जीव चराचर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें परिताप एवं पीड़ा देता है। शब्द में मूर्च्छित जीव अपने इच्छित पदार्थों के अर्जन, रक्षण एवं उनके वियोग न होने की चिन्ता में लगा रहता है। इस प्रकार वह सम्भोग काल में भी अतृप्त रहता है अतः उसे सुख कहां ? आसक्त जीव तृष्णा वश झूठ, कपट एवं चोरी करता है और अन्ततः दुःख को प्राप्त होता है।
१६ उत्तराध्ययनसूत्र ३२ /२० । २० उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२२ से ६८ ।
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