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को जीत लिया है उसकी तृष्णा स्वतः समाप्त हो जाती है तथा लोभ 'पर' में ममत्व रूप मोह पर आधारित है। अतः दुःखविमुक्ति के लिये सर्वप्रथम 'पर' को अपना समझने की इस मोहवृत्ति को समाप्त करना आवश्यक है।
___ उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन, अज्ञान एवं मोह के विसर्जन तथा राग और द्वेष के उन्मूलन से एकान्त सुख रूप मोक्ष की उपलब्धि होती है। राग-द्वेष और मोह की समाप्ति होने पर ही दुःख समाप्त होता है। दुःख समाप्ति की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए इसमें कहा गया है कि जो अकिंचनता अर्थात् मेरा कुछ नहीं है, ऐसी दृढ़ अनुभूति कर लेता है, उसका लोभ समाप्त हो जाता है; जिसका लोभ समाप्त हो जाता है उसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है; जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है; उसका मोह समाप्त हो जाता है; और जिसका मोह समाप्त हो जाता है, उसका दुःख समाप्त हो जाता है" जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं - सभी दुःख यहां तक कि देवताओं और मनुष्य के जो भी शारीरिक एवं मानसिक दुःख हैं वे सभी कामासक्ति से पैदा होते हैं। केवल वीतरागी आत्मा ही, उन दुःखों का अन्त कर पाती है। संक्षेप में कहें तो उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार दुःखविमुक्ति के लिए वीतराग या अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण आवश्यक है। इसमें व्यक्ति की साधना का लक्ष्य वीतरागता की उपलब्धि माना गया है । वीतरागता की उपलब्धि तभी सम्भव है जब व्यक्ति स्पष्ट रूप से जान ले कि सांसारिक सुख वस्तुतः सुख न होकर मात्र सुखाभास है।
७.३ सांसारिक सुख सुखाभास हैं
. उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि जिस प्रकार किम्पाक फल रूप, रंग, रस आदि की दृष्टि से देखने एवं खाने में अत्यंत मनोहर और मधुर होता है किन्तु उसका परिणाम अति भयानक है; उसी प्रकार कामगुण अर्थात् इन्द्रियसुख उपभोग काल में सुखद लगते हैं किन्तु
१५ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/६ । १६ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२ । 90 उत्तराध्ययनसूत्र ३२/८ ।
उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२६ । Jain Education International
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