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________________ २४३ दुःखमुक्ति के उपाय भारतीय-दर्शनों में जैन, बौद्ध, सांख्य आदि दर्शनों के चिन्तन का आरम्भिक सोपान भले ही 'दुःख' रहा हो; किन्तु उसकी अन्तिम परिणति तो पूर्ण दुःखविमुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति में है। अन्ततः सभी भारतीय दर्शन दुःख या उस दुःख के कारण अविद्या के निराकरण को ही अपना साध्य मानते हैं। भारतीय दर्शन का मूलमंत्र – 'अंधकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर तथा मृत्यु से. अमरत्व की ओर अग्रसर होना है।' बौद्धदर्शन के चार आर्यसत्यों में दुःख के कारण की विवेचना के . साथ-साथ दुःख निवारणं की स्वीकृति और दुःख निवारण के उपायों की चर्चा भी की गई है। जैनदर्शन दुःख विमुक्ति को मोक्ष के रूप में स्वीकार करता है : सांख्यदर्शन आध्यात्मिक, आधि-भौतिक एवं आधि-दैविक दुःखों की विवेचना के साथ पुरूष एवं प्रकृति के भेदज्ञान को दुःख-निवृत्ति का उपाय बतलाता है" अर्थात् जब तक पुरूष अपने आपको प्रकृति से भिन्न नहीं समझ लेता, उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसीप्रकार गीता निष्काम कर्म को दुःखमुक्ति का साधन मानती है।" उत्तराध्ययनसूत्र में दुःखरूपता के यथार्थ चित्रण के साथ दुःखमुक्ति के उपायों का भी व्यापक रूप से निरूपण किया गया है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उस व्यक्ति के दुःख समाप्त हो जाते हैं जिसे मोह नहीं है। अत: दुःख से विमुक्ति के लिए मोह का समाप्त होना आवश्यक है। किन्तु मोह तभी समाप्त हो सकता है, जब तृष्णा न हो । जब तक तृष्णा उपस्थित है, तब तक मोह रहेगा और जब तक मोह रहेगा, दुःख भी रहेगा । 'पर' में स्व का आरोपण मोह है और उस ममत्व के आरोपण द्वारा उसके पाने की आकांक्षा तृष्णा है, वस्तुतः जहां मोह होगा वहां तृष्णा होगी और जहां तृष्णा होगी वहां मोह होगा। जब तक तृष्णा उपस्थित है, तब तक दुःख की समाप्ति असम्भव है, क्योंकि तृष्णा स्वयं सबसे बड़ा दुःख है। तृष्णा को समाप्त करने के लिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जिसने लोभ १३ सांख्यकारिका १ । १४ गीता २/३६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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