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उत्तराध्ययनसूत्र में बताये गये दुःख के कारण आपस में सम्बन्धित हैं और इनका मूल स्त्रोत आसक्ति या ममत्व है। इसमें कहा गया कि दुःख कामना की जननी है । आचारांगसूत्र में काम (आसक्ति) को गर्भ अर्थात् पुनर्जन्म का कारण माना गया है। कामनायें इसीलिए उत्पन्न होती हैं कि हम वस्तुओं पर 'राग' भाव रखते हैं। राग अन्य कुछ नहीं; मात्र पर में ममत्व (अपनेपन ) का आरोपण है और पर में ममत्व का आरोपण ही अविद्या है, अज्ञान है। जहां ममत्व या आसक्ति होती है वहां राग-द्वेष की धारा सतत चलती रहती है और आसक्त व्यक्ति सदा प्रिय को प्राप्त करने एवं अप्रिय का त्याग करने में संलग्न रहता है। प्रिय-अप्रिय के ये भाव ही राग-द्वेष हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें अध्ययन में भगवान महावीर ने प्रशस्त (शुभ) राग को भी मोक्ष में बाधक माना है। उन्होंने गौतमस्वामी को उपदेश देते हुए कहा है 'गौतम! मेरे प्रति जो तुम्हारा ममत्व है, उसका भी त्याग करो। "
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सामान्य जन प्रिय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में राग तथा अप्रिय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से द्वेष करते हैं। प्रिय विषयों की प्राप्ति की चाह तृष्णा को जन्म देती है और तृष्णा दुःख को उत्पन्न करती है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतः कहा गया है कि तृष्णा से पराजित व्यक्ति के माया - मृषा और लोभ बढ़ते हैं . जिससे वह दुःख से मुक्ति नहीं पा सकता । "
८ 'कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं '
६ 'कामेसु गिद्धा निचयं करंति, संसिच्चमाणा पुणरेति गब्धं' ।
यह राग या आसक्ति
दुःख की प्रक्रिया का क्रम निम्न है - जहां आसक्ति है वहां राग है; जहां राग है वहां कर्म है; जहां कर्म है, वहां बन्धन है और बन्धन स्वयं दुःख है । वस्तुतः दुःख का मूल कारण ममत्व, राग-भाव या आसक्ति है। तृष्णा - जन्य है और तृष्णा मोह - जन्य है । मोह ही अज्ञान है यद्यपि अज्ञान ( मोह) और ममत्व में कौन प्रथम है यह कहना कठिन है। इन दोनों में मुर्गी और अण्डे के समान किसी की भी पूर्वापरता स्थापित करना असंभव है। 12
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१० उत्तराध्ययनसूत्र १० / २८ ।
११ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/३०, ४३, ५६, ६७, ८२ एवं ६५ ।
१२ उत्तराध्ययनसूत्र ३२ / ६ ।
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उत्तराध्ययनसूत्र ३२ / १६ का अंश । आचारांग १/३/२/३१ (लाडनूं) ।
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