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उत्तराध्ययनसूत्र में चारों गतियों अर्थात् नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव.' को दुःखरूप ही माना गया है, क्योंकि सभी में मरण का दुःख लगा हुआ है। इन दैहिक दुःखों के अतिरिक्त मानसिक दुःख भी हैं जिनका उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है। वस्तुतः दैहिक दुःखों का कारण भी मानसिक दुःख है; क्योंकि
जैनाचार्यों की दृष्टि में सुख एवं दुःख दोनों ही वस्तुगत (Objective) न होकर मनोगत विषयगत (Subjective) होते हैं। वस्तुयें तो उन सुख या दुःख के भावों की निमित्त मात्र हैं। अनेक बार यह देखा जाता है कि एक ही वस्तु दो भिन्न मानसिक स्थितियों में कभी सुखरूप होती है और कभी दुःखरूप सुख और दुःख की अनुभूति में मन की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गई है। वस्तुतः जब तक चित्त आसक्त है, इच्छाओं और आकांक्षाओं से जुड़ा हुआ है, तब तक दुःखों से निवृत्ति सम्भव नहीं है। इच्छा और आकांक्षा जो मनोजन्य है, वही यथार्थ दुःख है क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जहां इच्छा या आकांक्षा है, वहां अपूर्णता है, और जहां अपूर्णता है वहां दुःख है। इसमें स्पष्ट निर्देश है कि सुखों के उत्पाद, संरक्षण, संयोग एवं वियोग सभी में दुःख जुड़ा है। उनके उपभोग काल में भी अतृप्तता के कारण दुःख होता है।
औपनिषदिक ऋषियों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है - वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो अल्प है, अपूर्ण है, वह सुख नहीं है। वास्तविक सुख आत्मपूर्णता में है और जब तक व्यक्ति में इच्छायें और आकांक्षायें हैं, तब तक आत्मपूर्णता सम्भव नहीं है।
७.२ दुःख का कारण एवं दुःखमुक्ति के उपाय
दुःख का मूल कारण क्या है ? इसका उद्गम स्थल कौनसा है ? इन प्रश्नों को उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक प्रकार से वर्णित किया गया है। उसके अनुसार दुःख के कारण अविद्या, मोह, कामना, आसक्ति और राग-द्वेष आदि हैं।'
२ उत्तराध्ययनसूत्र १६/१०। ३ उत्तराध्ययनसूत्र १६/४५ । ४ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/६४ । ५ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२८, ४१, ५४, ६७, ८० एवं ६३ । ६ उपनिषद् ७/१३/१ ७ 'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ।।
- (छन्दोग्योपनिषद् - पृष्ठ ७८५) ।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३२/७ ।
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