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७.१ संसार की दुःखरूपता
'दुःख' भारतीयदर्शन तथा विशेष रूप से श्रमणपरम्परा का प्रमुख प्रत्यय रहा है। जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने जीवन को दुःखमय माना है। उनके साहित्य में दुःखरूपता का सजीव चित्रण है, फिर भी उनका लक्ष्य दुःखनिवृत्ति है। वस्तुतः दुःखविमुक्ति की चाह प्रत्येक प्राणी की स्वाभाविक प्रकृति है । अतः श्रमणपरम्परा जीवन की दुःखरूपता का चित्रण करके उसके निराकरण के प्रयत्न या पुरूषार्थ को ही जीवन का लक्ष्य मानती है। उसकी दृष्टि में 'दुःख' जीवन का यथार्थ है, तो 'दुःखविमुक्ति' जीवन का साध्य या आदर्श ।
उत्तराध्ययनसूत्र में दुःख के पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। कहा गया है
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उत्तराध्ययनसूत्र में जीवन दर्शन
'जन्म दुःख रूप है, जरावस्था दुःख रूप है, रोग और मरण भी दुःख रूप हैं। वस्तुतः तो यह समूचा संसार ही दुःखमय है, क्योंकि संसार में जन्म, जरा और मृत्यु लगे हुए हैं जिनसे प्राणी बार-बार पीड़ित होता है । '
१ उत्तराध्ययनसूत्र १६ / १६ ।
स्वरूप तथा उसके निराकरण के उपायों दुःख क्या है ? इसके उत्तर में इसमें
व्यक्ति के जन्म के समय भयंकर वेदना होती है। सर्वप्रथम गर्भावास में नौ माह तक अत्यन्त घृणित एवं अंधकारपूर्ण स्थान में रहना होता है। पुनः प्रसव या जन्म का दुःख भी कम नहीं होता । वृद्धावस्था के दुःख का तो स्पष्टतः अनुभव होता ही है तथा मृत्यु का दुःख तो इतना भयंकर है कि प्रत्येक प्राणी उसके नाम से या उसके आगमन की सम्भावना से ही दुःखी हो जाता है। इस प्रकार जन्म, जरा और मृत्यु तीनों दुःखमय हैं।
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