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________________ बारहवां अध्याय उत्तराध्ययन में प्रतिपादित शिक्षादर्शन की विवेचना करता है। इस अध्याय के अन्तर्गत शिक्षा के उद्देश्य, गुरू शिष्य के सम्बन्ध और गुरू के प्रति शिष्य के विनय आचार की चर्चा की गई हैं। साथ ही इसमें स्वाध्याय का प्रयोजन, उसका स्वरूप, उसका महत्त्व और उसके विभिन्न अंगों की उत्तराध्ययनं के आधार पर विवेचना की गई है। प्रस्तुत कृति के तेरहवें अध्याय में उत्तराध्ययन में प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं की चर्चा है। इसके अन्तर्गत संज्ञा, कषाय, लेश्या, ध्यान आदि पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। इस अध्याय के अन्तर्गत वासनाओं के दमन या निरसन की मनोवैज्ञानिक समस्या पर दार्शनिक दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही इसमें यह दिखाने का प्रयत्न भी किया गया है कि उत्तराध्ययन का मनोविज्ञान किस प्रकार फ्रायड के समान वासनाओं के दमन की अपेक्षा निरसन की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। इस शोध प्रबंध का चौदहवां अध्याय सामाजिक दर्शन से सम्बन्धित है। हमने इस अध्याय के अन्तर्गत वर्णव्यस्था की चर्चा करते हुए यह बताया है कि उत्तराध्ययन जन्मना वर्णव्यवस्था को अस्वीकार करता है और , कर्मणा वर्णव्यवस्था का समर्थन करता है। जातिगत श्रेष्ठता का .खण्डन करते हुऐ इसमें यह बताया गया है कि श्रेष्ठता का आधार कुल विशेष में जन्म लेना नहीं अपितु व्यक्ति का सदाचरण है। इस विवेचना के लिये मुख्यतः उत्तराध्ययन के बारहवें 'हरिकेशीय' एवं पच्चीसवें 'यज्ञीय' अध्ययन को आधार बनाया गया है। साथ ही इस अध्याय में विवाह संस्था, उसका उद्देश्य, पारिवारिक जीवन आदि सामाजिक प्रश्नों पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। ___ इस शोध प्रबंध का पन्द्रहवां अध्याय आर्थिक दर्शन से सम्बन्धित है। इस अध्याय के प्रारम्भ में जैन धर्म में अर्थ का क्या स्थान है ? इसकी चर्चा करते हुए उत्तराध्ययन के आर्थिक-दर्शन का विशेष रूप से विवेचन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि वित्त से दुःख विमुक्ति सम्भव नहीं है। अतः मनुष्य के लिए अर्थ की उपयोगिता किस सीमा तक है; यह एक विचारणीय प्रश्न है। उत्तराध्ययन की दृष्टि में अर्थ साधन है, साध्य नहीं । वस्तुतः उत्तराध्ययन का आचार दर्शन इच्छा-निवृत्ति का दर्शन है। वह आवश्यकताओं और इच्छाओं को सीमित करने का निर्देश देता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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