________________
सोलहवें अध्याय में प्रस्तुत ग्रन्थ में चर्चित विभिन्न दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का निर्देश है। यह अध्याय इस बात पर विशेष रूप से प्रकाश डालता है कि उस युग में जैन धर्म के अतिरिक्त कौन-कौन सी धार्मिक एवं दर्शनिक परम्पराएं अस्तित्व में थी। वस्तुतः उत्तराध्ययन में भारतीय दर्शनों के पूर्व बीज ही उपलब्ध होते हैं। अतः दर्शनों का क्रमिक विकास एक परवर्ती घटना है।
इस कृति के सत्रहवें अध्याय में उत्तराध्ययन की शिक्षाओं की प्रासंगिकता और उसके महत्त्व ही चर्चा की गई है। इसके प्रारंभ में हमने उत्तराध्ययन के परिप्रेक्ष्य में धर्म एवं विज्ञान के सम्बन्ध पर विचार किया है तत्पश्चात् धार्मिक आडम्बर, कर्मकाण्ड, रूढ़िवाद, एवं जन्मना जाति व्यवस्था के उन्मूलन हेतु प्रस्तुत ग्रन्थ के निर्देशों की विवेचना है। इसी क्रम में आगे सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक एवं मानसिक विषमता से विमुक्त होने के उपायों का विस्तृत विश्लेषण है। अध्याय के अन्त में आशावादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए उपभोक्तावादी संस्कृति से बचने के कई सुरक्षात्मक पहलू बताये हैं।
इस प्रकार प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में हमने दार्शनिक विचारों की विवेचना के साथ वर्तमान में उसकी शिक्षाओं की उपयोगिता बताने का पूर्ण प्रयास किया है।
कृतज्ञता ज्ञापन
सर्वप्रथम, मैं हृदय की असीम आस्था के साथ नतमस्तक हूं परमपावन परमात्मा एवं उनकी कल्याण कारिणी वाणी के प्रति जो मेरी श्रुतसाधना के अवलंबन .. बने । मेरी दर्शन-विशुद्धि, आत्मशुद्धि के साथ इस कृति के सर्जन का आधार बने ।
_इस शोध कार्य की सम्पन्नता महान आत्मसाधिका, भाववत्सला पू. गुरूवर्या श्री अनुभव श्री जी म. सा. की दिव्यकृपा के बिना सम्भव नहीं थी। उनकी अदृश्य प्रेरणा ही मेरे आत्मविश्वास का अटल आधार बनी। इस कृति की पूर्णता की पलों में उनके पावन चरणों में मेरा श्रद्धाभिसिक्त अनन्त-अनन्त वन्दन है।
जिनके आशीर्वाद एवं स्नेह की मुझे सदा अपेक्षा है वे हैं; प. पू. सुदीर्घसंयमी पू. विनोद श्री जी म. सा., पू. प्रियदर्शना श्री जी म. सा., पू. विनयप्रभा श्री जी म. सा., स्नेहप्रदात्री पू. प्रियम्वदा श्री जी म. सा. एवं विनीतयशा श्री जी म. सा.। ग्रन्थ की पूर्णाहूति की पावन पलों में उन सभी का स्मरण मेरी आत्मतृप्ति का आधार है। मेरी सहपथगामिनी, स्नहेवत्सला, कोकिलकंठी प. पू. कल्पलता श्री
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org