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होगा कि कोई भी किसी अन्य के सहारे से अपने ध्येय 'मोक्ष' को प्राप्त करे।' इस प्रकार जैनधर्म स्वपुरूषार्थ को अत्यन्त महत्त्व प्रदान करता है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अठ्ठावीसवें अध्ययन में कहा गया है कि 'आत्मा ज्ञान से जीवादि तत्त्वों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्म आश्रव का निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप कर्मविपाक को अनियत करने के अमोघ साधन हैं। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए इसमें कहा गया है कि साधक तप एवं संयम के द्वारा पूर्वकृतकर्मों का क्षय करके सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के द्वारा हम यह निष्कर्ष प्रस्तुत कर सकते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र कर्मविपाक की नियतता एवं अनियतता दोनों में विश्वास रखता है। आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र आदि में भी कर्म के सन्दर्भ में उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत प्रसंग के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न स्वाभाविक
रूप से उपस्थित होता है कि कर्मविपाक की नियतता एवं अनियतता का आधार क्या · है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुये डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है 'कर्मों के पीछे रही हुई कषायों की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर क्रमशः नियतविपाकी एवं अनियतविपाकी कर्मों का बन्ध होता है। जिन कर्मों के पीछे तीव्रकषाय (वासनाएं) होता है उनका बन्ध भी अतिप्रगाढ़ होता है और उनका विपाक भी नियत होता है। इसके विपरीत जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे कषाय अल्प होती है उनका बन्ध शिथिल होता है और इसलिए उनका विपाक भी अनियत होता है। इस प्रकार भावधारा के आधार पर कर्मविपाक की नियतता या अनियतता निर्धारित की जाती है। तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वशीभूत होकर किये गये कर्मों के बन्ध अवश्य ही नियत होते है; जबकि अल्पकषायभावों में बांधे गये कर्म अनियत होते हैं। . आचार्य हरिभद्र सूरि 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में लिखते हैं कि जिस वस्तु को जिस समय, जिस कारण से जिस रूप में होना है, वह वस्तु उस कारण से उस रूप में निश्चित रूप से उत्पन्न होती है। ऐसी परिस्थिति में नियति
४६ उत्तराध्ययनसूत्र २८/३५ । ६० उत्तराध्ययनसूत्र २५/४३, ३०/१, एवं ३२/१०८ । ६. आचारांग -४/४/३८ एवं ४५
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ३७)। २'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन', पृष्ठ ३२२ - डॉ. सागरमल जैन ।
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