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________________ २३६ उत्तराध्ययनसूत्र में कर्मविपाक के सन्दर्भ में की गई उपर्युक्त चर्चा स्पष्ट उपलब्ध नहीं होती है पर इसके विभिन्न अध्ययनों में यत्र-तत्र. हमें नियतविपाकी एवं अनियतविपाकी कर्म सम्बन्धित चर्चा अवश्य मिलती है। जैसे 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' अर्थात् कृतकर्मों से छुटकारा नहीं होता है। पुनः इसके तेरहवें अध्ययन में सम्भूति कहते हैं: "पूर्व जन्म में मेरे द्वारा किये गये सत्य और शुद्ध कर्मों का फल मैं आज भोग रहा हूं। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र के उपर्युक्त लिखित तथ्य नियतविपाकी कर्म की पुष्टि करते हैं। इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि जो होना है वही होता है उससे अन्यथा नहीं हो सकता। साथ ही यह भी प्रकट होता है कि कोई भी कर्म एक नियत क्रम में संचित होता है और एक निश्चित समय पश्चात् नियत क्रम में फल देकर समाप्त हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह निर्णय नहीं ले सकते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र का कर्मसिद्धान्त एकान्त नियतविपाकीकर्म या नियतिवाद का समर्थक है क्योंकि इसमें अन्यत्र अनेक स्थलों पर हमें अनियतविपाकी कर्म या पुरूषार्थवाद के उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं। कर्म की एकान्तिक नियतता का निषेध करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है; 'संयमी के करोड़ों भवों के संचितकर्म तप से नष्ट हो जाते हैं। व्यक्ति तप, संयम रूपी पुरूषार्थ के द्वारा पूर्वकृतकर्मों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है। इसके तीसरे अध्ययन में कहा गया है कि 'कों के हेतुओं को दूर करके क्षमा भाव से संयम का सचय करके वह साधक पार्थिवशरीर को छोड़कर उर्ध्वदिशा (स्वर्ग अथवा मोक्ष) को जाता है। इस उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति स्वयं के पुरूषार्थ के द्वारा ही मोक्ष या स्वर्ग को प्राप्त करता है। जैनधर्म के तीर्थंकर स्वयं के पुरूषार्थ एवं तपस्या द्वारा ही मोक्ष को उपलब्ध करते हैं। जैनधर्म स्वपुरूषार्थ (स्वावलम्बन) को इतना महत्त्व देता है कि जब भगवान महावीर के साधना काल में भयंकर कष्ट आने लगे, तब इन्द्र (देवता) उनकी सहायता के लिये साथ रहने की आज्ञा मांगते हैं, तो भगवान कहते हैं- 'हे इन्द्र! यह न तो कभी हुआ और न कभी ५४ उत्तराध्ययनसूत्र ४/३ एवं १३/१० । ५५ उत्तराध्ययनसूत्र १३/६|| ५६ ‘एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडी संचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ।। ५७ 'खवेत्ता पुनकम्माई, संजमेण तवेण य ।' ५. 'विगिंच कम्मुणो हेडं, जसं संचिणु खत्तिए । महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणच्चवं ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र ३०/६ । - उत्तराध्ययनसूत्र २८/३६ का अंश । - उत्तराध्ययनसूत्र ३/१३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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