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________________ कर्मों के फल का भोग उसे करना ही होता है। कर्म कर्ता का अनुसरण करते हैं इसका आशय यही है कि व्यक्ति कर्मों के फलविपाक से बच नहीं सकता । इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र कर्म बन्धन के सम्बन्ध में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को तथा उनके फलविपाक की अनिवार्यता के रूप में नियतिवाद को स्वीकार करता है । कर्मविपाक के रूप में जैनदर्शन में नियतिवाद के तत्त्व को स्वीकार किया गया है। सामान्यतः कर्मविपाक से तात्पर्य नियतरूप में कर्मों का फल प्राप्त करना है इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि सभी कर्मों का एक निश्चित समय पर फल प्रदान करना आवश्यक नहीं है। कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जिनका विपाक नियत नहीं होता जैनदर्शन में कर्मविपाक को दो वर्गों में विभाजित किया गया है - (१) नियतविपाकी कर्म और (२) अनियतविपाकी कर्म। (9) नियतविपाकी कर्म - नियतविपाकी कर्म वे कहलाते हैं, जिनका फल अनिवार्यतः भोगना पड़ता है। दूसरे शब्दों में जिन कर्मों का विपाक नियत अर्थात् निश्चित है वे नियतविपाकी कर्म कहलाते हैं। (२) अनियतविपाकी कर्म - अनियतविपाकी कर्म वे कहलाते हैं जिनका विपाक नियत नहीं होता है अर्थात् जिन कर्मों का फल किये हुए कर्मों के अनुसार भोगना अनिवार्य नहीं होता है; उनके स्वरूप, तरतमता, समयावधि आदि में परिवर्तन किया जा सकता है। कर्म की उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण आदि अवस्थायें अनियतविपाकी कर्म की सूचक हैं, इन स्थितियों में कर्मों का फल उस रूप में प्राप्त नहीं होता है जिस रूप में उन्हें बांधा गया है। प्राचीन स्तर के आगमग्रन्थों में उद्वर्तना आदि अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी इन अवस्थाओं की चर्चा का अभाव है। परवर्ती कर्मग्रन्थों और उनकी टीकाओं में यह चर्चा विस्तार से मिलती है। १३ (क) कर्मग्रन्थ प्रथम - व्याख्याकार मरूधर केसरी, प्रस्तावना, पृष्ठ ६२; (ख) आत्ममीमांसा, पृष्ठ १२८ - पं. दलसुख मालवणिया; : (ग) 'जैनबौद्धगीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' - भाग १, पृष्ठ ३५१। - डॉ. सागरमल जैन (c) 'Studies in Jaina Philosophy, Page 254 - Nathmal Jatia; (छ) कर्मप्रकृति गाथा - - (उद्धृत जैन सिद्धान्त उद्भव एवं विकास, पृष्ठ १४५- डॉ. रवीन्द्रनाथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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