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________________ २३४ विपाक (उदय) अवश्य होता है। द्रव्यकर्मों के निमित्त से होने वाले भाव/आत्मपरिणाम भावकर्म कहलाते हैं। भावकर्म पुरूषार्थवाद का समर्थन करते हैं क्योंकि भावकर्म रूप अनुभूति में प्रतिक्रिया करना या न करना, इस सम्बन्ध में व्यक्ति सदैव स्वतन्त्र रहता है। ....... प्रतिक्रियारूप भावकर्म में हम अपना भविष्य बनाने या बिगाड़ने में स्वतन्त्र हैं। भावकर्म में द्रव्यकर्म तो मात्र निमित्त हैं, उपादान तो आत्मा ही है और आत्मा तो स्वरूपतः स्वतन्त्र ही है। कर्मसिद्धान्त का स्पष्ट निष्कर्ष है कि अतीत, जो हमारी नियति है, उसके बनाने वाले भी हम ही थे। मात्र यही नहीं आज भी हम में वह शक्ति मौजूद है जिसके द्वारा हम अपने भविष्य के निर्माता बन सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में पुरूषार्थवाद एवं नियतिवाद की इस समस्या का स्पष्ट उल्लेख तो उपलब्ध नहीं होता हैं, फिर भी उसमें कुछ ऐसे सूत्र उपलब्ध होते हैं, जिनके आधार पर नियतिवाद एवं पुरूषार्थवाद की इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। ::. उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ अध्ययन में कहा गया है कि कृतकर्म-फल के भोग के बिना मोक्ष नहीं है। इसका अर्थ यह है कि कर्म व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र कृति हैं। यदि हम कर्म को व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र कृति नहीं मानेंगे तो कर्म फलभोग का उत्तरदायित्व भी व्यक्ति पर नहीं होगा। व्यक्ति उन्हीं कर्मों के लिये उत्तरदायी है जिनके करने या न करने में उसके संकल्प की स्वतन्त्रता होती है। संकल्प स्वातंत्र्य के बिना कर्म का उत्तरदायित्व होता ही नहीं। कृत कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इस अर्थ में उसकी नियतता या विवशता भी है, यह विवशता भी उसके अपने द्वारा अर्जित है। उत्तराध्ययनसूत्र में यह कहा गया है – “कम्म सच्चा हु पाणिनो' प्राणी अपने फल अवश्य हैं। कर्म की सत्यता उसके फलविपाक की नियतता के साथ जुड़ी हुई है अर्थात् कर्म नियत नहीं हो सकता। उत्तराध्ययनसूत्र में यह भी कहा गया है कि कर्म कर्ता का अनुसरण करते हैं। इस सन्दर्भ में भी यह फलित होता है कि कर्म करने में कर्ता स्वतंत्र है, किन्तु स्वतन्त्ररूप से किये गये अपने इन्हीं - उत्तराध्ययनसूत्र ४/३ एवं १३/१० । ५० 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि' ५१ उत्तराध्ययनसूत्र ७/२० के अंश । ५२ 'कतारमेव अणुजाइ कम्मं ।' - उत्तराध्ययनसूत्र १३/२३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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