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६.४ कर्मसिद्धान्त नियतिवाद है या पुरूषार्थवाद
जैन कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में यह प्रश्न प्रमुख रूप से उपस्थित होता है कि जैन कर्मसिद्धान्त नियतिवाद का समर्थक है या पुरूषार्थवाद का ?
जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया एवं संकल्प का कारण उसके पूर्ववर्ती कर्म हैं अर्थात् व्यक्ति की हर मानसिक एवं शारीरिक गतिविधि पूर्वकृतकर्मों का परिणाम है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मसिद्धान्त नियतिवाद को प्रश्रय देता है। यह मानना नितान्त भ्रमपूर्ण होगा क्योंकि जैन कर्मसिद्धान्त व्यक्ति स्वातंत्र्य में विश्वास रखता है।
कर्मसिद्धान्त के अनुसार पूर्वकृतकों में संक्रमण, अपवर्तन, उदीरणा और प्रदेशोदय के द्वारा परिवर्तन किया जा सकता है; कर्मबन्ध की प्रक्रिया में अपवर्तन एवं उद्वर्तन का क्रम सतत चालू रहता है। अतः व्यक्ति अपने वर्तमान कालिक पुरूषार्थ के द्वारा अतीत कों में परिवर्तन कर सकता है। अतीत कर्मों का फलविपाक भी एकान्त नियत नहीं है। अतीत के कर्म भी उसके ही अपने पुरूषार्थ का परिणाम होते हैं; वे भी नियत नहीं होते । नियतता विपाकोदय तक सीमित है, उसकी उपस्थिति में प्रतिक्रिया करने या नहीं करने में व्यक्ति की स्वतन्त्रता बनी रहती है। वस्तुतः कर्मसिद्धान्त एक विशिष्ट व्यवस्था है जिसमें नियति एवं पुरूषार्थ दोनों का समुचित स्थान है। इसमें अतीत के कर्मों के सन्दर्भ में नियतिवाद का महत्त्व है तो भविष्य के कर्मों के लिये पुरूषार्थ की प्रधानता है। नियतिवाद भी पूर्वकृत स्वपुरूषार्थ पर आश्रित है अर्थात् हमारे वर्तमान जीवन के नियामक तत्त्व हमारे ही अपने पूर्वकर्म होते हैं। इसके निर्धारक तत्त्व कोई अन्य नहीं हैं।
कर्मसिद्धान्त में हमारे वर्तमान जीवन को निर्धारित करने वाले तत्त्व हमारे ही पूर्वकर्म • या संस्कार होते हैं कर्मसिद्धान्त एक प्रकार से आत्मनिर्धारणवाद है। दूसरी ओर कर्मसिद्धान्त में व्यक्ति पुरूषार्थ के क्षेत्र में एवं आगामी भविष्य के निर्धारण में स्वतन्त्र है। अतः कर्मवाद पुरूषार्थवाद भी है।
जैनदर्शन में मुख्यतः दो प्रकार के कर्म माने गये हैं (१) द्रव्यकर्म और (२) भावकर्म। कर्म का पौद्गलिक पक्ष द्रव्यकर्म कहलाता है। इसे नियतिवाद के रूप में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि पूर्वबद्धकर्मों का द्रव्यकर्म के रूप में
४६ व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर ।
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