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(८) अन्तरायकर्म
इष्ट की सिद्धि में विघ्न उत्पन्न करने वाला कर्म अन्तरायकर्म कहलाता है। इस कर्म के प्रभाव से सभी अनुकूल साधन उपलब्ध होने पर भी अभीष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती । उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार अन्तरायकर्म के पांच भेद निम्न हैं 46
(१) दानान्तराय - जिस कर्म के प्रभाव से दान देने की इच्छा होने ' पर भी दान नहीं दिया जा सके वह दानान्तराय है।
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(२) लाभान्तराय - जिस कर्म के प्रभाव से किसी होने वाले लाभ या उपलब्धि में विघ्न आ जाय वह लाभान्तराय है ।
(३) भोगान्तराय - भोग के साधनों के उपस्थित होने पर भी उनके उपयोग में बाधा हो तो वह भोगान्तरायकर्म का प्रभाव है। जैसे एक सम्पन्न व्यक्ति जिसके घर पांच पकवान बने हों पर शारीरिक अस्वस्थता के कारण वह उन्हें खा नहीं सके यह भोगान्तराय है।
(४) उपभोगान्तराय - उपभोग के साधन उपस्थित होने पर भी उनके उपभोग करने में असमर्थ होना उपभोगान्तराय है।
(५) वीर्यान्तराय - शक्ति के होने पर भी पुरूषार्थ के द्वारा उसका उपयोग कर पाने की असमर्थता वीर्यान्तराय है।
अन्तरायकर्म बन्धन के कारण
कर्मग्रन्थ के अनुसार जिन - पूजा आदि धर्म कार्यों में विघ्न उत्पन्न करने वाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति अन्तरायकर्म का संचय करता है। 47 तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना अन्तरायकर्म के बन्ध का कारण है 48
४६ 'दाणे लाभे भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं समासेण वियाहियं ॥।'
४७ कर्मग्रन्थ १/६१ |
४८ तत्त्वार्थसूत्र ६ / २६ ।
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उत्तराध्ययनसूत्र ३३ / १५ ।
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