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मूल्यवान एवं अल्प मूल्यवान अनेक प्रकार के घड़े बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म के उदय से जीव उच्च एवं नीच कुल में उत्पन्न होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में गोत्रकर्म के उच्चगोत्र एवं नीचगोत्र ऐसे दो मुख्य भेद किए गये हैं। साथ ही इन दोनों के अवान्तर आठ भेद होते हैं, ऐसा संकेत भी किया गया है।
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इन आठ भेदों के नाम निम्न प्रकार से दिये गये हैं" – (१) जाति; (२) कुल; (३) रूप/सौन्दर्य; (४) बल; (५) श्रुत या ज्ञान; (६) तप (७) लाभ और (८) ऐश्वर्य। इन आठों भेदों के साथ उच्च शब्द जोड़ने पर ये उच्चगोत्रकर्म तथा इनके साथ नीच शब्द जोड़ने पर ये नीचगोत्रकर्म के भेद हो जाते हैं। गोत्रकर्म के बन्धन के कारण
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में कहा गया है कि उच्च गोत्रकर्म के आठ प्रकारों का जो अहंकार करता है वह नीचगोत्र का उपार्जन करता है तथा जो इनका अहंकार नहीं करता वह उच्चगोत्र का बन्ध करता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार परनिन्दा एवं आत्मप्रशंसा तथा दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन एवं असद्गुणों का प्रकाशन नीचगोत्र के बन्धन का कारण है तथा इसके विपरीत परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन, सरलता एवं नम्रता उच्चगोत्रकर्म के बन्धन के कारण हैं।
कर्मग्रन्थ के अनुसार अहंकार रहित गुणग्राही दृष्टिवाला और अध्ययन अध्यापन में रूचि रखने वाला उच्चगोत्र को प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला नीचगोत्र को प्राप्त करता है।
४२ 'गोर्य कम्मं दुविहं, उच्वं नीचं च आहियं । . उच्चं अट्ठविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र ३३/१४ ।। ४३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६६ ।
- (लक्ष्मीवल्लभगणि)। ४४ तत्त्वार्यसूत्र ६/२४ एवं २५ ।
४५ कर्मग्रन्थ १/६०। Jain Education International
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